#daduji
卐 सत्यराम सा 卐
जेती लहर समंद की, ते ते मनहि मनोरथ मार ।
बैसे सब संतोंष कर, गहि आत्म एक विचार ॥
दादू दीया है भला, दीया करौ सब कोइ ।
घर में धर्या न पाइये, जे कर दीया न होइ ॥
आपा मेटै हरि भजै, तन मन तजै विकार ।
निर्वैरी सब जीव सौं, दादू यहु मत सार ॥
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-> 'द' <-
>> एक बार देव, मानव, एवं असुर सभी पितामह प्रजापति ब्रह्मा जी के पास शिष्य भाव से विद्या सीखने की इच्छा से जाकर ब्रह्मचर्यपूर्वक उनकी सेवा करते हुए, सभी ने क्रम से उपदेश की कामना की तब सबसे पहले देवताओँ को "द" कह दिया ।
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> देवताओँ ने सोचा कि स्वर्गलोक में भोगों की भरमार है, भोग ही देवलोक का सुख माना जाता है, कभी वृद्ध न होकर देवगण सदा इन्द्रिय भोग मे लिप्त रहते हैं, अपनी अवस्था पर विचार करते हुए देव "द" का अर्थ "दमन" समझकर जाने लगे । तब ब्रह्मा जी के पूछने पर देवों ने कहा - आपने हम विलासियो को "इन्द्रिय दमन" करने की आज्ञा दी है । ब्रह्मा जी ने कहा ठीक है, जाओ, परन्तु मेरे उपदेश के अनुसार चलना तभी तुम्हारा कल्याण होगा ।
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> इसी प्रकार मनुष्यो ने भी "द" का अर्थ लगाया कि हम कर्मयोनि होने के कारण सदा लोभवश कर्म करने और अर्थ - संग्रह मेँ लगे रहते हैं, इसलिए पितामह ने हम लोभियोँ को "दान" करने का उपदेश दिया है । और ब्रह्मा जी के पूछने पर बताया कि आपने हमेँ "दान" करने को कहा है । ब्रह्मा जी ने कहा जाओ हमारे इस उपदेश का पालन करना तुम्हारा कल्याण होगा ।
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> असुरो ने सोचा कि हम लोग स्वभाव से हिँसावृत्ति वाले हैं, क्रोध और हिँसा हमारा नित्य का व्यापार है । अतः पितामह हमेँ इस दुष्कर्म से छुडाने के लिए कृपा करते हुए जीवमात्र पर "दया" करने को कह रहेँ हैं । पूछने पर ब्रह्माजी से कहा - आपने हम हिंसको को प्राणिमात्र पर "दया" करने को कहा है । ब्रह्मा जी कहा ठीक है अब तुम जाओ और द्वेष भाव त्यागकर प्राणिमात्र पर दया करना, इससे तुम्हारा कल्याण होगा ।
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"देव, दनुज, मानव सभी लहैँ परम कल्यान ।
पालै जो "द" अर्थ को दमन, दया, अरु दान ॥"
(बृहदारण्यक उपनिषद पर आधारित)

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