सोमवार, 23 फ़रवरी 2015

= १८० =

#daduji
卐 सत्यराम सा 卐
गुरु दादू और कबीर की, काया भई कपूर।
रज्जब अज्जब देखिया, सर्गुण निर्गुण नूर॥
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साभार : @Kripa Shankar B ~
"रज्जब तूँ गज्जब कियो सिर पे बाँध्यो मोर|
आयो थो हरि भजन को करे नरक की ठौर||"
महान संत रज्जब अली खान कोई छोटे मोटे आदमी नहीं थे| उनके पिता आमेर की सेना के मुख्य सेनापति थे| संत दादू दयाल की एक एक दृष्टी मात्र से वे एक सामान्य मनुष्य से महान संत बन गए| वे अपनी पसंद की लडकी से परिणय हेतु सांगानेर से आमेर जा रहे थे| सर पे मोर मुकुट बँधा था और साथ में खूब बड़ी बारात थी| पर मार्ग में संत दादू दयाल के दर्शन मात्र से उनका ह्रदय परिवर्तन हो गया| बरात लौटा दी और आजीवन दादू जी की सेवा की|
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उनकी रचनाओं का संग्रह "रज्जब वाणी" टाईं के स्वर्गीय माननीय ठाकुर नारायण सिंह जी शेखावत ने छपवाई थी| उनके अनुज स्वर्गीय ठाकुर लक्ष्मण सिंह जी शेखावत संघ के आजीवन पूर्णकालिक प्रचारक थे| मैं उन्हीं का और एक अन्य आजीवन प्रचारक स्वर्गीय माननीय श्री ठाकुर दास जी टंडन का बनाया हुआ स्वयंसेवक हूँ| माननीय श्री ठाकुर दास जी टंडन ने मुझे 15 वर्ष की आयु में ही सम्पूर्ण विवेकानंद साहित्य का अध्ययन करवाया था जिसकी स्मृति अभी तक है|
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उस जमाने में संघ के सभी प्रचारक त्यागी तपस्वी हुआ करते थे| संयोग की बात है कि पढने के लिए "रज्जब वाणी" मुझे अमरकंटक (मध्य प्रदेश) क्षेत्र के मेरे एक मित्र अघोरी साधू से मिली जो अब नहीं हैं| संत दादू दयाल जी के प्रायः सभी शिष्य क्षत्रिय थे जिन्होंने साधू बनने के बाद भी धर्मरक्षा हेतु अपने शस्त्रास्त्रों का त्याग नहीं किया|
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उनके परंपरा में अनेक महान संत हुए जिनमें परम विद्वान सुंदरदास जी और परम गुरुभक्त रज्जब अली खान जैसे भी थे जिन्होंने अपने गुरु के देह त्याग के पश्चात आँखों पर पट्टी बाँध ली और कुछ भी नहीं देखा| उनका कहना था की संसार में सबसे अधिक सुंदर तो गुरु के चरण कमल हैं| जब वे ही नहीं हैं तो अन्य कुछ भी नहीं देखना है|
काश! ऐसी गुरुभक्ति सभी में होती|

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