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द्वितीय भाग : शब्दभाग(उत्तरार्ध)
राग केदार ६(गायन समय संध्या ६ से ९ बजे)
टीका ~ महामण्डलेश्वर ब्रह्मनिष्ठ पंडित श्री स्वामी भूरादास जी
साभार विद्युत संस्करण ~ गुरुवर्य महामंडलेश्वर संत श्री १०८ स्वामी क्षमाराम जी महाराज
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१४०.(गुजराती) अधीर उलाहन । त्रिताल ~
धरणीधर बाह्या धूतो रे, अंग परस नहिं आपे रे ।
कह्यो अमारो कांई न माने, मन भावे ते थापे रे ॥टेक॥
वाही वाही ने सर्वस लीधो, अबला कोइ न जाणे रे ।
अलगो रहे येणी परि तेड़े, आपनड़े घर आणे रे ॥१॥
रमी रमी रे राम रजावी, केन्हों अंत न दीधो रे ।
गोप्य गुह्य ते कोई न जाणै, एह्वो अचरज कीधो रे ॥२॥
माता बालक रुदन करंता, वाही वाही ने राखे रे ।
जेवो छे तेवो आपणपो, दादू ते नहिं दाखे रे ॥३॥
टीका ~ ब्रह्मऋषि सतगुरुदेव इसमें धैर्य रहित उपालंभ दिखा रहे हैं कि हे धरणी - धर परमेश्वर ! आपने मायावी गुणों द्वारा हमारे मन को अपनी तरफ से बहका दिया है । हे नाथ ! आपके स्वरूप का हमें स्पर्श नहीं हो रहा है । हमारा कहना आप क्यों नहीं मानते हो ? जो आपके मन में भाता है, उसी भक्त को आप अपने स्वरूप में रखते हो ।
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हे प्रभु ! आप - हमको मायावी गुणों में बहका - बहका कर हमारा अन्त ले लिया है । और हम विरहीजन आपके निर्बल भक्त हैं, आप हमें कुछ भी नहीं समझते हो । आप हमसे अलग रहकर अपने स्वरूप की ओर आने की इस प्रकार प्रेरणा करते हो कि दया करके अपने स्वरूप की ओर ले ही आते हो ।
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हे राम जी ! आप विरहीजन भक्तों के साथ खेल - खेलकर, उनको रिझाया है अथवा विरहीजन भक्तों ने आपके साथ विचार रूपी खेल - खेलकर आपको रिझा लिया है । परन्तु आपने किसी को अपने स्वरूप का अन्त नहीं दिया है । हे अति गुप्त से गुप्त, गहन से भी गहन ! आपके पूर्णतया मर्म को कोई भी नहीं जानते । ऐसा आपने कुछ अचरज रचा है ।
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परन्तु जो बालक रोता है, उसी को माता दूध पिलाती है और जाकर उसी की रक्षा करती है । जैसा है वैसा अच्छा बुरा उसको अपना जानकर अपनी समर्थाई से वह उसकी रक्षा करती है । इसी प्रकार हम विरहीजन भक्त आपके हैं । आप हमारी अच्छाई बुराई पर ध्यान न देकर अपना जानकर हमारी रक्षा करो ।
(क्रमशः)
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