॥ श्री दादूदयालवे नमः॥
*सवैया ग्रन्थ(सुन्दर विलास)*
साभार ~ @महंत बजरंगदास शास्त्री जी,
पूर्व प्राचार्य - श्री दादू आचार्य संस्कृत महाविद्यालय(जयपुर) व
राजकीय आचार्य संस्कृत महाविद्यालय(चिराणा, झुंझुनूं, राजस्थान)
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*२०. साधु को अंग*
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*जोग जज्ञ जप तप तीरथ ब्रतादि दांन,*
*साधन सकल नहिं याकी सरभरि हैं ।*
*और देवी देवता उपासना अनेक भांति,*
*शंक सब दूरि करि तिनतैं न डरि हैं ।*
*सब ही के शीस पर पांव दे मुकति होइ,*
*सुन्दर कहत सो तौ जनमैं न मरी हैं ।*
*मन बच काय करि अंतरि न राखै कछु,*
*संतनि की सेवा करै सोई निसतरि है ॥३०॥*
॥ इति साधु का अंग ॥
*सन्तों का सेवक कृतकृत्य* : योग, यज्ञ, जप, तप, तीर्थ, व्रत आदि सभी साधन इस सन्त सेवा से कोई स्पर्धा नहीं कर सकते ।
अन्य सभी देवताओं की विविध उपासनाएँ कर अपनी शंकाओं को दूर कर लिया है, अब उन से कोई भय नहीं हैं ।
वह इन सभी साधनों को परास्त कर मुक्तिपथ की ओर बढ़ता हुआ, *श्री सुन्दरदास जी* के कथनानुसार; अपनी जन्ममरण परम्परा को नष्ट करने में लगा हुआ है ।
वह काय, वाणी एवं मन से पूरी तत्परता के साथ, सन्तों की सेवा में लगा हुआ है, अतः उस का इस जगत् से उद्धार निश्चित है ॥३०॥
॥ साधु का अंग सम्पन्न ॥२०॥

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