गुरुवार, 5 फ़रवरी 2015

२०. साधु को अंग ~ १६

॥ श्री दादूदयालवे नमः॥ 
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*सवैया ग्रन्थ(सुन्दर विलास)* 
साभार ~ @महंत बजरंगदास शास्त्री जी, 
पूर्व प्राचार्य - श्री दादू आचार्य संस्कृत महाविद्यालय(जयपुर) व 
राजकीय आचार्य संस्कृत महाविद्यालय(चिराणा, झुंझुनूं, राजस्थान) 
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*२०. साधु को अंग* 
*काम ही न क्रोध जाकै लोभ ही न मोह ताकै,* 
*मद ही न मछर न, कोऊ न बिकारौ है ॥* 
*दुख ही न सुख मानै पाप ही न पुन्य जानै,* 
*हरष न शोक आंनै देह ही तैं न्यारौ है ॥* 
*निंदा न प्रशंसा करै राग ही न दोष धरै,* 
*लैंन ही न दैंन जाकै कछू न पसारौ है ।* 
*सुन्दर कहत ताकी अगम अगाध गति,* 
*ऐसी कोऊ साधु सु तौ रांमजी कौ प्यारौ है१॥१६॥* 
*ऐसा साधु भगवान् को भी प्रिय* : जिसके हृदय में न काम का वास है, न क्रोध का; न लोभ का या मोह का । जिस को न मद है न मात्सर्य तथा न उसके चित में किसी प्रकार का विकार ही है । 
जो किसी भी कारण से न दुःख मानता है, न सुख, न पाप मानता है, न पुण्य । न हर्ष करता है, न शोक । वह तो अपने आप को देह से पृथक् ही अनुभव करता है । 
न उसके लिये कोई प्रशंसा का महत्व है, न निन्दा का । न वह किसी से राग करता है न द्वेष । न उसको किसी से व्यावहारिक लेना है, देना; क्योंकि वह लौकिक व्यवहार ही नहीं करता । 
*श्री सुन्दरदास जी* कहते हैं - ऐसे साधु की गति(व्यवहार) अगम्य हैअगाध है।अतः ऐसी करणी वाला महात्मा ही भगवान् को प्रिय होता है ॥१६॥ 
(१. तुलनीय - भगवद्गीता, १२ अ., १३ से १९ श्लो. तक ।) 
(क्रमशः)

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