|| दादूराम सत्यराम ||
"श्री दादू चरितामृत(भाग-१)" लेखक ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान |
एक दिन बीठलव्यास ने प्रणाम करके दादूजी से पूछा भगवन् ! आप अन्य संतों के समान कंठी, माला तिलक क्यों नहीं रखते हैं ?
दादूजी ने कहा-
"दादू माला तिलक से कुछ नहीं, काहू सेती काम |
अंतर मेरे एक है, अह निश उसका नाम |"
अर्थ :- माला, तिलक और कंठी से परमात्मा की प्राप्ति रूप कार्य में कुछ भी लाभ नहीं है | तिलक और कंठी तो अपने - अपने संप्रदाय के चिन्ह मात्र है | यदि कंठी और तिलक से ही परमात्मा की प्राप्तिरूप कार्य होता हो, तब तो करोड़ों की संख्या में लोग रखते हैं | उन सबको परमात्मा का साक्षात्कार होना चाहिये ? उनके तो ईर्ष्या द्वेष आदि द्वंद्व भी दूर नहीं होते हैं | तब परमार्थ में उसका क्या लाभ है ? अर्थात् संप्रदाय के चिन्ह मात्र ही हैं | और माला भी जप की संख्या के लिए ही है |
"दादू माला मन दिया, पवन सूत से पोय |
बिन हाथों निशि दिन जपैं, परम जाप यूं होय ||"
अर्थ - हमारे गुरु वृद्ध भगवान् ने हम को मन रूप माला दी है, अर्थात् एकाग्र मन से प्रतिश्वास ब्रह्मचिन्तन करना रूप माला दी है | उस माला को बिना हाथों ही हम रात दिन जपते हैं | इस प्रकार हमारा अन्तः जप निरंतर होता ही रहता है | हमको अन्य माला की आवश्यकता नहीं होती है | उक्त प्रकार से मुझे कंठी, माला और तिलक की प्रभु की उपासना में आवश्यकता नहीं होने से मैं कंठी, माला, तिलक नहीं धारण करता हूँ | और सांसारिक प्राणी तो लकीर पीटने वाली बात चरितार्थ करते हैं | नामदेवादिकों के समान उपासना नहीं कर पाते हैं |
"सांप गया सहणान को, सब मिल मारें लोक |
दादू ऐसा देखिये, कुल का डोगरा फोक |"
इससे सांसारिक लोकों का साधन डगर(मार्ग) निःस्सार छाछ के सामान है और संतों की साधना सार नवनीत के समान है | उक्त विचारों को श्रवण करके बीठलव्यास के मनको संतोष हुआ | उसका मुख मंडल प्रसन्न भासने लगा | उसने प्रणाम करके कहा - "आप सत्य ही कहते हैं, सर्वसाधारण से नामदेवादि के समान अंतः साधना नहीं हो पाती है | सांसारिक लोकों में बाहर का दिखावा ही अधिक देखा जाता है |"
(क्रमशः)

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