#daduji
卐 सत्यराम सा 卐
प्रेम लग्यो परमेश्वर सों तब,
भूलि गयो सिगरो घरु बारा |
ज्यों उन्मत्त फिरें जितहीं तित,
नेक रही न शरीर सँभारा ||
श्वास उसास उठे सब रोम,
चलै दृग नीर अखंडित धारा |
सुंदर कौन करे नवधा विधि,
छाकि पर्यो रस पी मतवारा ||
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'प्रेमयोग का तत्त्व'
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प्रेमका वास्तविक वर्णन हो नहीँ सकता। प्रेम जीवन को प्रेममय बना देता है। प्रेम गूँगे का गुड़ है। प्रेम का आनंद अवर्णनीय होता है। रोमांच, अश्रुपात, प्रकम्प आदि तो उसके बाह्य लक्षण हैँ, भीतर के रस प्रवाह को कोई कहे भी तो कैसे ? वह धारा तो उमड़ी हुई आती है और हृदय को आप्लावित कर डालती है। पुस्तकोँ मेँ प्रेमियोँ की कथा पढ़ते हैं; किँतु सच्चे प्रेमी का दर्शन तो आज दुर्लभ ही है। परमात्मा का सच्चा परम प्रेमी एक ही व्यक्ति करोड़ों जीवोँ को पवित्र कर सकता है।
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बरसते हुए मेघ जिधर से निकलते हैँ उधर की ही धरा को तर कर देते हैँ। इसी प्रकार प्रेम की वर्षा से यावत् चराचर को तर कर देता है। प्रेमी के दर्शनमात्र से ही हृदय तर हो जाता है और लहलहा उठता है। तुलसीदास जी महाराज ने कहा है -
मोरेँ मन प्रभु अस विश्वासा।
राम ते अधिक राम कर दासा॥
राम सिँधु घन सज्जन धीरा।
चंदन तरु हरि संत समीरा॥
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समुद्र से जल लेकर मेघ उसे बरसाते हैँ और वह बड़ा ही उपकारी होता है। भगवान समुद्र हैँ और संत मेघ। भगवान से ही प्रेम लेकर संत संसार पर प्रेम बरसाते हैँ और जिस प्रकार मेघ का जल नदियोँ, नालोँ से होकर पृथ्वी को उर्वरा बनाते हुए समुद्र मेँ प्रवेश कर जाता है, ठीक उसी प्रकार संत भी प्रेम की वर्षा कर अंत मेँ प्रभु के प्रेम को प्रभु मेँ ही समर्पित कर देते हैँ।
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प्रभु चंदन के वृक्ष हैँ और संत बयार(वायु)। जिस प्रकार हवा चंदन की सुगन्ध को दिग्दिगन्त मेँ फैला देती है, उसी प्रकार संत भी प्रभु की दिव्य गन्ध को प्रवाहित करते रहते हैं। संत को देख कर प्रभु की स्मृति आती है, अतएव संत प्रभु के स्वरुप हैँ, इसी प्रकार श्रद्धालु पुरुष भी केवल संतो के ही आश्रय रहते हैँ।
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प्रेमी के वाणी और नेत्र आदि से प्रेम की वर्षा होती रहती है। उसका मार्ग प्रेम से पूर्ण होता है। वह जहाँ जाता है वहाँ के कण-कण मेँ, हवा मेँ, धूलि मेँ उसके स्पर्श के कारण प्रेम-ही-प्रेम दृष्टिगोचर होता है। उसका स्पर्श ही प्रेममय होता है, स्नेह से ओतप्रोत होता है।
-श्रद्धेय जयदयालजी गोयन्दका 'सेठजी'
'प्रेमयोग का तत्त्व' नामक पुस्तक से

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