शुक्रवार, 27 फ़रवरी 2015

*= कंठी, माला तिलक =*

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*#श्रीदादूचरितामृत*, *"श्री दादू चरितामृत(भाग-१)"
लेखक ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज,
पुष्कर, राजस्थान ।*
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*~ पंचम बिन्दु ~*
*= कंठी, माला तिलक =*
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एक दिन बीठलव्यास ने प्रणाम करके दादूजी से पूछा भगवन् ! आप अन्य संतों के समान कंठी, माला तिलक क्यों नहीं रखते हैं ?
दादूजी ने कहा -
"दादू माला तिलक से कुछ नहीं, काहू सेती काम ।
अंतर मेरे एक है, अह निश उसका नाम ।"
अर्थ : - माला, तिलक और कंठी से परमात्मा की प्राप्ति रूप कार्य में कुछ भी लाभ नहीं है । तिलक और कंठी तो अपने - अपने संप्रदाय के चिन्ह मात्र है । यदि कंठी और तिलक से ही परमात्मा की प्राप्तिरूप कार्य होता हो, तब तो करोड़ों की संख्या में लोग रखते हैं । उन सबको परमात्मा का साक्षात्कार होना चाहिये ? उनके तो ईर्ष्या द्वेष आदि द्वंद्व भी दूर नहीं होते हैं । तब परमार्थ में उसका क्या लाभ है ? अर्थात् संप्रदाय के चिन्ह मात्र ही हैं । और माला भी जप की संख्या के लिए ही है ।
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"दादू सतगुरु माला मन दिया, पवन सुरत से पोय ।
बिन हाथों निशि दिन जपैं, परम जाप यूं होय ॥"
अर्थ - हमारे गुरु वृद्ध भगवान् ने हम को मन रूप माला दी है, अर्थात् एकाग्र मन से प्रतिश्वास ब्रह्मचिन्तन करना रूप माला दी है । उस माला को बिना हाथों ही हम रात दिन जपते हैं । इस प्रकार हमारा अन्तः जप निरंतर होता ही रहता है । हमको अन्य माला की आवश्यकता नहीं होती है । उक्त प्रकार से मुझे कंठी, माला और तिलक की प्रभु की उपासना में आवश्यकता नहीं होने से मैं कंठी, माला, तिलक नहीं धारण करता हूँ । और सांसारिक प्राणी तो लकीर पीटने वाली बात चरितार्थ करते हैं । नामदेवादिकों के समान उपासना नहीं कर पाते हैं ।
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"सांप गया सहणान को, सब मिल मारें लोक ।
दादू ऐसा देखिये, कुल का डोगरा फोक ।"
इससे सांसारिक लोकों का साधन डगर(मार्ग) निःस्सार छाछ के सामान है और संतों की साधना सार नवनीत के समान है । उक्त विचारों को श्रवण करके बीठलव्यास के मनको संतोष हुआ । उसका मुख मंडल प्रसन्न भासने लगा । उसने प्रणाम करके कहा - "आप सत्य ही कहते हैं, सर्वसाधारण से नामदेवादि के समान अंतः साधना नहीं हो पाती है । सांसारिक लोकों में बाहर का दिखावा ही अधिक देखा जाता है ।"
(क्रमशः)

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