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द्वितीय भाग : शब्दभाग(उत्तरार्ध)
राग केदार ६( गायन समय संध्या ६ से ९ बजे)
टीका ~ महामण्डलेश्वर ब्रह्मनिष्ठ पंडित श्री स्वामी भूरादास जी
साभार विद्युत संस्करण ~ गुरुवर्य महामंडलेश्वर संत श्री १०८ स्वामी क्षमाराम जी महाराज
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१२३.(गुजराती भाषा) । राज मृगांक ताल ~
पीव घर आवे रे, वेदन मारी जाणी रे ।
विरह संताप कौण पर कीजे,
कहूँ छूं दुख नी कहाणी रे ॥टेक॥
अंतरजामी नाथ मारा,
तुज बिण हूँ सीदाणी रे ।
मंदिर मारे केम न आवे,
रजनी जाइ बिहाणी रे ॥१॥
तारी बाट हूँ जोइ थाकी,
नैण निखूट्या पाणी रे ।
दादू तुज बिण दीन दुखी रे,
तूँ साथी रह्यो छे ताणी रे ॥२॥
टीका ~ ब्रह्मऋषि सतगुरुदेव इसमें परमेश्वर से विनती कर रहे हैं कि हे परमेश्वर ! आप हमारे विरह के दर्द को जानकर, हमारे हृदय रूपी घर में दर्शन दीजिये । हम विरहीजन, इस विरह के संताप की पुकार किसके पास जाकर करें ।
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हम अपनी दुःख भरी कथा आपको ही सुना रहे हैं । हे अन्तस् की जानने वाले हमारे स्वामी ! आपके बिना हम मुरझा रहे हैं । हमारे हृदयरूपी मन्दिर में आप क्यों नहीं प्रगट होते हो ? यह हमारी उम्र रूपी रात्रि आपके बिना वृथा ही जा रही है ।
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आपका रास्ता देख कर थक रहे हैं और हमारे नेत्रों का पानी भी सूख गया है, रुदन करते - करते । हे नाथ ! हम विरहीजन आपके बिना दुःखी हो रहे हैं । आप हमारे साथ रहकर भी हमसे ‘ताणी’ कहिये ‘अलग’ क्यों हो रहे हो ?
(क्रमशः)
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