बुधवार, 4 फ़रवरी 2015

२०. साधु को अंग ~ १५

॥ श्री दादूदयालवे नमः॥ 
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*सवैया ग्रन्थ(सुन्दर विलास)* 
साभार ~ @महंत बजरंगदास शास्त्री जी, 
पूर्व प्राचार्य - श्री दादू आचार्य संस्कृत महाविद्यालय(जयपुर) व 
राजकीय आचार्य संस्कृत महाविद्यालय(चिराणा, झुंझुनूं, राजस्थान) 
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*२०. साधु को अंग* 
*धूलि जैसौ धन जाकै सूलि से संसार सुख,* 
*भूलि जैसौ भाग देखै अंत की सी यारी है ।* 
*पाप जैसी प्रभुताई सांप जैसौ सनमान,* 
*बड़ाई हू बिछुनी सि नागनी सी नारी है ॥* 
*अग्नि जैसौ इन्द्रलोक बिघ्न जैसौ बिधिलोक,* 
*कीरति कलंक जैसी सिद्धि सी ठगारी है ।* 
*बासना न कोऊ बाकी ऐसी मति सदा जाकी,* 
*सुन्दर कहत ताहि बंदना हमारी है१ ॥१५॥* 
*सिद्ध महात्मा को प्रणाम* : जो महात्मा धन को धूल के समान समझता है, संसार सुख को शूली के समान समझता है, भाग्यचक्र को भ्रममात्र मानता है, सांसारिक मित्रता को मृत्यु समय की मित्रता समझता है । 
सांसारिक प्रभुता को पाप तथा सांसारिक सम्मान को सर्पतुल्य समझता है । बड़ाई को बिच्छु तथा नारी को सर्पिणी के समान समझता है । 
इन्द्रलोक को अग्नितुल्य, ब्रह्मलोक को विघ्नरूप तथा कीर्ति को कलंकरूप तथा ऋद्धि सिद्धि को ठगिनी के समान समझता है । 
जिसके हृदय में कोई वासना न रह गयी हो, तथा जिसकी बुद्धि सदा सात्विक रहती है, श्री सुन्दरदास जी कहते हैं - वैसे सिद्ध महात्मा को हमारा शत शत प्रणाम है ॥१५॥ 
(१. दो छन्द(१५ - १६) महाराज सुन्दरदासजी ने आगरे के जैनकवि बनारसीदास को लिखे थे, जिनके उत्तर में बनारसीदासजी ने "कीच सौ कनक जाकै .... ताहि बंदत बनारसी" -- यह छन्द लिखा । पुरोहित हरिनारायण जी अपने संस्करण में यह सूचना देते हैं ।) 
(क्रमशः)

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