मंगलवार, 24 फ़रवरी 2015

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द्वितीय भाग : शब्दभाग(उत्तरार्ध)
राग केदार ६(गायन समय संध्या ६ से ९ बजे)
टीका ~ महामण्डलेश्वर ब्रह्मनिष्ठ पंडित श्री स्वामी भूरादास जी
साभार विद्युत संस्करण ~ गुरुवर्य महामंडलेश्वर संत श्री १०८ स्वामी क्षमाराम जी महाराज
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१४२. परिचय । राजमृगांक ताल
देहुरे मंझे देव पायो, वस्तु अगोचर लखायो ॥टेक॥
अति अनूप ज्योति - पति, सोई अन्तर आयो ।
पिंड ब्रह्माण्ड सम, तुल्य दिखायो ॥१॥
सदा प्रकाश निवास निरंतर, सब घट मांहि समायो ।
नैन निरख नेरो, हिरदै हेत लायो ॥२॥
पूरव भाग सुहाग सेज सुख, सो हरि लैन पठायो ।
देव को दादू पार न पावै, अहो पै उन्हीं चितायो ॥३॥
इति राग केदार सम्पूर्ण ॥६॥पद २६॥
टीका ~ ब्रह्मऋषि सतगुरुदेव इसमें साक्षात्कार का परिचय बता रहे हैं कि हे जिज्ञासुओं ! इस शरीर के अन्तःकरण रूपी मन्दिर में चैतन्य रूपी देव का ज्ञान रूप नेत्रों से या सुरति - स्मृति रूप नेत्रों से हमने दर्शन किया ।
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वह मन इन्द्रियों का अविषय चैतन्य स्वरूप आप अपनी कृपा द्वारा, हमको अपना स्वरूप साक्षात्कार करा रहे हैं, जो अति अनूप है । सब जीवरूप ज्योतियों के वह स्वामी हैं, वही हमारे ‘अन्तर’ कहिए जीव - मात्र के भीतर प्राप्त करने योग्य हैं । शरीर और ब्रह्माण्ड के अन्दर अपना व्याप्त स्वरूप दिखा रहे हैं ।
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वही सदा ज्ञान - स्वरूप सबके अन्दर अन्तराय रहित होकर सब घटों में प्रकाश रहे हैं । ज्ञान रूपी नेत्रों से निरख करके हमने अपने हृदय की प्रीति उनसे ही लगाई है ।
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पूर्व का अक्षय भाग्य उदय हुआ, जिससे कि हरि हृदय रूपी सेज पर, जीव - ब्रह्म की एकता रूप सुहाग को लेने के लिये, हमको इस मनुष्य शरीर में भेजे हैं । उस चैतन्य स्वरूप देव का हमने पार नहीं पाया है । जिन पर उन्होंने दया की है, उनको ही अपना स्वरूप ‘चिताया’ कहिए बताया है ।
इति राग केदार टीका सहित सम्पूर्ण ॥६॥पद २६॥
(क्रमशः)

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