मंगलवार, 3 फ़रवरी 2015

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द्वितीय भाग : शब्दभाग(उत्तरार्ध)
राग केदार ६( गायन समय संध्या ६ से ९ बजे)
टीका ~ महामण्डलेश्वर ब्रह्मनिष्ठ पंडित श्री स्वामी भूरादास जी
साभार विद्युत संस्करण ~ गुरुवर्य महामंडलेश्वर संत श्री १०८ स्वामी क्षमाराम जी महाराज
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१२५. विरह(गुजराती) । राज विद्याधर ताल ~
म्हारा रे वाहला ने काजे, 
हृदये जोवा ने हौं ध्यान धरूं ।
आकुल थाये प्राण मारा, 
कोने कही पर करूँ ॥टेक॥
संभार्यो आवे रे वाहला, 
वेहला एहों जोई ठरूं ।
साथीजी साथे थइ ने, 
पेली तीरे पार तरूं ॥१॥
पीव पाखे दिन दुहेला जाये, 
घड़ी बरसां सौं केम भरूं ।
दादू रे जन हरि गुण गाता, 
पूरण स्वामी ते वरूं ॥२॥
टीका ~ ब्रह्मऋषि सतगुरुदेव इसमें विरहीजनों का भाव दिखा रहे हैं कि हे हमारे प्यारे ! आपको हृदय में देखने के लिये विरह सहित आपका ध्यान करते हैं । हमारे प्राण आपके दर्शनों के बिना व्याकुल हो रहे हैं । कहो न, आपके बिना किसके पास पुकार करें ?
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आप तो स्मरण करते ही विरहीजन भक्तों के हृदय में आते हो । हमारे को भी इस समय आप दर्शन देओ । जिससे आपका दर्शन करके हमारा हृदय शीतल होवे । हे साथी जी ! साथ रहने वाले, आपके साथ रहकर हम संसार - समुद्र से पार तिरेंगे ।
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हे पीव ! आपके बिना मेरी उम्र के दिन कठिनता से बीत रहे हैं । आपके बिना एक - एक घड़ी हम वर्षों के समान बिता रहे हैं । पूरा दिन कैसे काटें ? हे स्वामी ! हम आपके विरहीजन, आपका स्मरण करते हैं और आपको ही हमने अपना पति कहिये स्वामी वरण किया है ।
(क्रमशः)

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