॥ श्री दादूदयालवे नमः॥
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*सवैया ग्रन्थ(सुन्दर विलास)*
साभार ~ @महंत बजरंगदास शास्त्री जी,
पूर्व प्राचार्य - श्री दादू आचार्य संस्कृत महाविद्यालय(जयपुर) व
राजकीय आचार्य संस्कृत महाविद्यालय(चिराणा, झुंझुनूं, राजस्थान)
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*२०. साधु को अंग*
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*उही दगाबाज उही कुष्ठी जु कलंक भर्यौ,*
*उही महापापी वाकै नख सिख कीच है ।*
*उही गुरुद्रोही, गो ब्राह्मण कौ हननहार,*
*उही आतमा कौ घाती हिंसा वाकै बीच है ॥*
*उही अघ कौ समुद्र उही अघ कौ पहार,*
*सुन्दर कहत बाकी बुरी भांति मीच है ।*
*उही है मलेच्छ उही चंडाल बुरे तैं बुरौ,*
*संतन की निन्दा करैं सु तो महानीच है ॥२७॥*
*सन्तों का निन्दक महापापी* : कोई दूसरों को धोका देने वाला हो, या कुष्ठ रोगी के समान जिसका शरीर कलंक युक्त्त हो, या महापापी हो जो नख से शिखा तक पापपंक में निमग्न हो ।
जो गुरुद्रोही हो, जो गौ तथा ब्राह्मण का हत्यारा हो, या कोई आत्मघाती हो जिस के हृदय में हिंसा विराजमान हो ।
जो पाप का समुद्र हो, या पाप का पर्वत हो, *श्री सुन्दरदास जी* कहते हैं - ऐसे पापियों की मृत्यु बहुत बुरी होगी ।
परन्तु जो सन्तों की निन्दा करता है वह तो महानीच है, तथा मलेच्छ एवं चाण्डाल से भी अधिक दूर रखने योग्य है ॥२७॥
(क्रमशः)

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