मंगलवार, 17 फ़रवरी 2015

२०. साधु को अंग ~ २८

॥ श्री दादूदयालवे नमः॥ .
*सवैया ग्रन्थ(सुन्दर विलास)* 
साभार ~ @महंत बजरंगदास शास्त्री जी, 
पूर्व प्राचार्य - श्री दादू आचार्य संस्कृत महाविद्यालय(जयपुर) व 
राजकीय आचार्य संस्कृत महाविद्यालय(चिराणा, झुंझुनूं, राजस्थान) 
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*२०. साधु को अंग* 
*परि है वज्रागि ताकै ऊपरी अचांनचक,* 
*धूरि उडि जाइ कहुं ठाहर न पाइ है ।*
*पीछै कैऊ युग महा नरक मैं परै जाइ,* 
*ऊपरी तैं यमहू की मार बहु खाइ है ॥* 
*ताकै पीछै भूत प्रेत थावर जंगम जोनि,* 
*सहैगौ संकट तब पीछैं पछताई है ।* 
*सुन्दर कहत और भुगतै अनंत दुख,* 
*संतनि कौ निंदै ताकौ सत्यानाश जाइ है ॥२८॥*
*साधु निन्दा का दुष्परिणाम* : उस पर अचानक व्रज की अग्नि(विध्युत्पात) गिरेगी, उससे उस के कण कण बिखर जायंगे, उसे रक्षा का कोई ठौर ठिकाना भी नहीं मिलेगा । 
फिर उस का बहुत समय तक महारौरव नरक में पतन होगा । ऊपर से वह यमराज के विविध यातनाएँ सहता रहेगा । 
फिर, उस नरक तथा यम की यातनाओं से छुटकारे के बाद, भूत, प्रेत, स्थावर जंगम - इन विविध योनियों में जा जा कर नाना प्रकार के कष्ट सहेगा । तथा उसके फलस्वरूप पश्चाताप करता रहेगा । 
*श्री सुन्दरदास जी* कहते हैं - यह स्पष्ट कहना सम्भव ही नही है कि वह क्या क्या कष्ट सहन करेगा, क्योंकि; जो सन्तों की निन्दा करता है उस का सत्य ही सर्वनाश हो जाता है ॥२८॥
(क्रमशः)

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