#daduji
卐 सत्यराम सा 卐
प्रेम लग्यो परमेश्वर सों तब,
भूलि गयो सिगरो घरु बारा |
ज्यों उन्मत्त फिरें जितहीं तित,
नेक रही न शरीर सँभारा ||
श्वास उसास उठे सब रोम,
चलै दृग नीर अखंडित धारा |
"सुंदर" कौन करे नवधा विधि,
छाकि पर्यो रस पी मतवारा ||
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साभार : आत्म चैतन्य ~
.......||मस्ती ||..........
यह मस्ती दिल-दिमाग-और शरीर का अन्दर से एक संग हो जाना है ..किन्तु बाहर से दिखने में बिलकुल असंगत | ऐसा नहीं कि इसका भान उसे नहीं है उसे मालूम है कि बाहर भी ताल-मेल बैठना पड़ेगा किन्तु उसके हाथ में नहीं है ..वह बैठा भी नहीं सकता ..उसने जो प्याला पी रखा है ..वह अन्दर ही देखने की अनुमति देती है बाहर की परवाह नहीं | और भाई मेरे !...जब भीतर संगीत बज रह हो तो बाहर को कौन सुने |
अब !!!..उसे तो लोग पागल ही कहेंगे न | कहो पागल कोई असर नहीं उसने तो भीतर की स्वर-संगती पा ली है .वह उस मधुर ध्वनी में मस्त है ....नाच रहा है, गा रहा है, वह अव्यक्त को व्यक्त कर चुका है, वह सूक्ष्म को इतना बड़ा. विशाल. विराट कर चुका है ..कि अब केवल वही है ही | वह दिव्यता और अखंडता को जी रहा, उसे पागल कहो या कुछ और वह तो मस्त है. अपनी मस्ती में ...देखो देखो ..जरा ध्यान से देखो ....वह ..देखो वह तो बिलकुल मस्त है ||
.............श्री नारायण हरिः .........आत्मचैतन्य ||


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