गुरुवार, 5 फ़रवरी 2015

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द्वितीय भाग : शब्दभाग(उत्तरार्ध)
राग केदार ६( गायन समय संध्या ६ से ९ बजे)
टीका ~ महामण्डलेश्वर ब्रह्मनिष्ठ पंडित श्री स्वामी भूरादास जी
साभार विद्युत संस्करण ~ गुरुवर्य महामंडलेश्वर संत श्री १०८ स्वामी क्षमाराम जी महाराज
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१२७. त्रिताल ~
पीव ! हौं कहा करूँ रे, 
पाइ परूं के प्राण हरूं रे,
अब हौं मरणे नांहि डरूं रे ॥टेक॥
गाल मरूं कै, जालि मरूं रे, 
कै हौं करवत शीश धरूं रे ॥१॥
खाइ मरूं कै घाइ मरूं रे, 
कै हौं कतहूँ जाइ मरूं रे ॥२॥
तलफ मरूं कै झूरी मरूं रे, 
कै हौं विरही रोइ मरूं रे ॥३॥
टेरि कह्या मैं मरण गह्या रे, 
दादू दुखिया दीन भया रे ॥४॥
टीका ~ ब्रह्मऋषि सतगुरुदेव इसमें विरह विलाप दिखा रहे है कि- हे प्रीतम प्यारे परमेश्‍वर ! हम आपके वियोग में अब क्या करें ? हम आपके चरणों में पड़ते हैं कि दर्शन दो या इस शरीर से हम प्राणों को त्याग कर दें । अब तो हम मरणे से कुछ भी भय नहीं करते हैं ।
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क्या इस शरीर को बर्फ में गलाकर मरें या अग्नि में जला कर मरें या अपने मस्तक पर करवत धारण करें ।
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अथवा कुछ खाकर मर जावें या इस शरीर पर शस्त्रों का आघात करके मरें । या कहीं पहाड़ जंगल में जाकर मर जावें ।
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आपके लिये तलफ - तलफ, झूर - झूरकर हम मर रहे हैं । हम विरहीजन क्या आपके लिये अब रो रो कर मरेंगे ।
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हम आपको पुकार कर कहते हैं कि आपके दर्शनों के लिये हमने मरणा मांड लिया है । क्योंकि हम विरहीजन अति दुःखी आपके आधीन हो रहे हैं ।
(क्रमशः)

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