बुधवार, 11 फ़रवरी 2015

२०. साधु को अंग ~ २२

#daduji

॥ श्री दादूदयालवे नमः॥ 
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*सवैया ग्रन्थ(सुन्दर विलास)* 
साभार ~ @महंत बजरंगदास शास्त्री जी, 
पूर्व प्राचार्य - श्री दादू आचार्य संस्कृत महाविद्यालय(जयपुर) व 
राजकीय आचार्य संस्कृत महाविद्यालय(चिराणा, झुंझुनूं, राजस्थान) 
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*२०. साधु को अंग* 
*प्रथम सुजस लेत सील हू संतोष लेत,* 
*क्षमा दया धर्म लेत पाप तैं डरतु हैं ।* 
*इन्द्रिनि कौं घेरि लेत मनहू कौं फेर लेत,* 
*जोग की जुगति लेत ध्यान लै धरतु हैं ॥* 
*गुरु कौ बचन लेत हरिजी कौ नांम लेत,* 
*आत्मा कौं सोधि लेत भौजाल तरतु हैं ।* 
*सुन्दर कहत जग संत कछु लेत नाहिं,* 
*संतजन निस दिन लेबौई करतु हैं ॥२२॥* 
*सन्तों की ग्रहणशीलता* : *महाराज श्री सुन्दरदास जी* का मानना है कि जगत् में यह मिथ्या प्रवाद फैला हुआ है कि सन्त जन कुछ नहीं लेते; वस्तुतः वे बहुत कुछ लेते हैं । 
वे लोक से सुयश लेते हैं, शील, सन्तोष, क्षमा, दया, धर्म लेते हैं, पाप से डरते हैं । 
इन्द्रियों पर निग्रह कर लेते हैं, मन को संसार से निवृत्त कर लेते हैं, योग को युक्ति से प्राप्त कर प्रभु का ध्यान धर लेते हैं । 
गुरु से उपदेश लेते हैं, प्रभु का नाम लेते हैं, आत्मा को शुद्ध कर लेते हैं तथा संसार सागर को पार कर लेते हैं । इस तरह सन्त जन कुछ लेते ही रहते हैं ॥२२॥
(क्रमशः)

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