#daduji
॥ श्री दादूदयालवे नमः॥
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*सवैया ग्रन्थ(सुन्दर विलास)*
साभार ~ @महंत बजरंगदास शास्त्री जी,
पूर्व प्राचार्य - श्री दादू आचार्य संस्कृत महाविद्यालय(जयपुर) व
राजकीय आचार्य संस्कृत महाविद्यालय(चिराणा, झुंझुनूं, राजस्थान)
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*२०. साधु को अंग*
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*प्रथम सुजस लेत सील हू संतोष लेत,*
*क्षमा दया धर्म लेत पाप तैं डरतु हैं ।*
*इन्द्रिनि कौं घेरि लेत मनहू कौं फेर लेत,*
*जोग की जुगति लेत ध्यान लै धरतु हैं ॥*
*गुरु कौ बचन लेत हरिजी कौ नांम लेत,*
*आत्मा कौं सोधि लेत भौजाल तरतु हैं ।*
*सुन्दर कहत जग संत कछु लेत नाहिं,*
*संतजन निस दिन लेबौई करतु हैं ॥२२॥*
*सन्तों की ग्रहणशीलता* : *महाराज श्री सुन्दरदास जी* का मानना है कि जगत् में यह मिथ्या प्रवाद फैला हुआ है कि सन्त जन कुछ नहीं लेते; वस्तुतः वे बहुत कुछ लेते हैं ।
वे लोक से सुयश लेते हैं, शील, सन्तोष, क्षमा, दया, धर्म लेते हैं, पाप से डरते हैं ।
इन्द्रियों पर निग्रह कर लेते हैं, मन को संसार से निवृत्त कर लेते हैं, योग को युक्ति से प्राप्त कर प्रभु का ध्यान धर लेते हैं ।
गुरु से उपदेश लेते हैं, प्रभु का नाम लेते हैं, आत्मा को शुद्ध कर लेते हैं तथा संसार सागर को पार कर लेते हैं । इस तरह सन्त जन कुछ लेते ही रहते हैं ॥२२॥
(क्रमशः)

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