#daduji
॥ श्री दादूदयालवे नमः॥
*सवैया ग्रन्थ(सुन्दर विलास)*
साभार ~ @महंत बजरंगदास शास्त्री जी,
पूर्व प्राचार्य - श्री दादू आचार्य संस्कृत महाविद्यालय(जयपुर) व
राजकीय आचार्य संस्कृत महाविद्यालय(चिराणा, झुंझुनूं, राजस्थान)
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*२०. साधु को अंग*
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*ताही कै भगति भाव उपजि हैं अनायास,*
*जाकी मति सन्तन सौं सदा अनुरागी है ।*
*अति सुख पावै ताकै दुख सब दूरि हौंहि,*
*औरहु की जिन निंदा मुख त्यागी है ।*
*संसार की पाशि काटि पाइ है परम पद,*
*सतसंग ही तैं जाकै ऐसी मति जागि है ।*
*सुन्दर कहत ताकौ तुरत कल्याण होइ,*
*संतनि कौ गुन गहै सोई बड़भागी है ॥२९॥*
*सन्तों का सेवक सौभाग्यशाली* : जो जिज्ञासु सन्तों के प्रति सदा अनुरक्त रहता है उसके ही हृदय में प्रभु के प्रति अनायास भाव भक्ति का उद्रेक होता है ।
जिसने साधारण जन की निन्दा करना छोड़ दिया है, उसके सभी कलेश दूर हो जाते हैं, तथा वह सुख की ओर अग्रसर होने लगता है ।
उस के सभी जगज्जाल काट जाते हैं तथा वह परम पद(मोक्षप्राप्ति) की ओर बढ़ने लगता है; क्योंकि सत्संग के कारण उसकी बुद्धि निर्मल हो चुकी है ।
*श्री सुन्दरदास जी* कहते हैं - उस जिज्ञासु का तत्काल कल्याण होने लगता है, जो सन्तों से गुण - ग्रहण करने का प्रयास कर रहा है । ऐसा जिज्ञासु बहुत भाग्यशाली होता है ॥२९॥
(क्रमशः)

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