बुधवार, 18 फ़रवरी 2015

२०. साधु को अंग ~ २९

#daduji

॥ श्री दादूदयालवे नमः॥ 
*सवैया ग्रन्थ(सुन्दर विलास)* 
साभार ~ @महंत बजरंगदास शास्त्री जी, 
पूर्व प्राचार्य - श्री दादू आचार्य संस्कृत महाविद्यालय(जयपुर) व 
राजकीय आचार्य संस्कृत महाविद्यालय(चिराणा, झुंझुनूं, राजस्थान) 
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*२०. साधु को अंग* 
*ताही कै भगति भाव उपजि हैं अनायास,* 
*जाकी मति सन्तन सौं सदा अनुरागी है ।* 
*अति सुख पावै ताकै दुख सब दूरि हौंहि,* 
*औरहु की जिन निंदा मुख त्यागी है ।*
*संसार की पाशि काटि पाइ है परम पद,* 
*सतसंग ही तैं जाकै ऐसी मति जागि है ।* 
*सुन्दर कहत ताकौ तुरत कल्याण होइ,* 
*संतनि कौ गुन गहै सोई बड़भागी है ॥२९॥* 
*सन्तों का सेवक सौभाग्यशाली* : जो जिज्ञासु सन्तों के प्रति सदा अनुरक्त रहता है उसके ही हृदय में प्रभु के प्रति अनायास भाव भक्ति का उद्रेक होता है । 
जिसने साधारण जन की निन्दा करना छोड़ दिया है, उसके सभी कलेश दूर हो जाते हैं, तथा वह सुख की ओर अग्रसर होने लगता है । 
उस के सभी जगज्जाल काट जाते हैं तथा वह परम पद(मोक्षप्राप्ति) की ओर बढ़ने लगता है; क्योंकि सत्संग के कारण उसकी बुद्धि निर्मल हो चुकी है । 
*श्री सुन्दरदास जी* कहते हैं - उस जिज्ञासु का तत्काल कल्याण होने लगता है, जो सन्तों से गुण - ग्रहण करने का प्रयास कर रहा है । ऐसा जिज्ञासु बहुत भाग्यशाली होता है ॥२९॥
(क्रमशः)

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