मंगलवार, 3 मार्च 2015

= १२ =

#daduji
卐 सत्यराम सा 卐
दादू शब्द विचार करि, लागि रहे मन लाइ ।
ज्ञान गहै गुरुदेव का, दादू सहज समाइ ॥
एता कीजे, आप थैं, तन मन उनमन लाइ ।
पंच समाधी राखिये, दूजा सहज सुभाइ ॥
*(श्री दादूवाणी ~ गुरुदेव का अंग)*
https://youtu.be/0Mnas8G4m4M
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साभार : Kripa Shankar B ~
सहज योग पर एक अति संक्षिप्त लघु चर्चा -----

मेरे निजात्मगण सखा, सप्रेम अभिवादन !
'सहज' का अर्थ क्या होता है ? सहज का अर्थ -- 'आसान' नहीं है । 'सहज' का अर्थ 'सह+ज' यानि जो साथ में जन्मा है । साथ में जो जन्मा है उसके माध्यम से या उसके साथ योग ही सहज योग है । कोई भी प्राणी जब जन्म लेता है तो उसके साथ जिसका जन्म होता है वह है उसका श्वास । अत: श्वास-प्रश्वास ही सह+ज यानि 'सहज' है ।
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महर्षि पतंजलि ने चित्त की वृत्तियों के निरोध को 'योग' परिभाषित किया है । चित्त और उसकी वृत्तियों को समझना बड़ा आवश्यक है । उसको समझे बिना आगे बढना ऐसे ही है जैसे प्राथमिक कक्षाओं को उतीर्ण किये बिना माध्यमिक में प्रवेश लेना ।
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चित्त है आपकी चेतना का सूक्ष्मतम केंद्र बिंदु जिसे समझना बड़ा कठिन है । चित्त स्वयं को दो प्रकार से व्यक्त करता है ---- एक तो मन व वासनाओं के रूप में, और दूसरा श्वास-प्रश्वास के रूप में । मन व वासनाओं को पकड़ना बड़ा कठिन है । हाँ, साँस को पकड़ा जा सकता है । योगी लोग कहते हैं कि मानव देह और मन के बीच की कड़ी --- 'प्राण' है । चंचल प्राण ही मन है । प्राणों को स्थिर कर के ही मन पर नियन्त्रण किया जा सकता है ।
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भारत के योगियों ने अपनी साधना से बड़े बड़े महान प्रयोग किये और योग-विज्ञान को प्रकट किया । योगियों ने पाया की श्वास-प्रश्वास कोई स्वतंत्र क्रिया नहीं है बल्कि सूक्ष्म देह में प्राण प्रवाह की ही प्रतिक्रिया है । जब तक देह में प्राणों का प्रवाह है तब तक साँस चलेगी । प्राण प्रवाह बंद होते ही साँस भी बंद हो जायेगी ।
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योगियों की स्वयं पर प्रयोग कर की गयी महानतम खोज इस तथ्य का पता लगाना है कि श्वास-प्रश्वास पर ध्यान कर के प्राण तत्व को नियंत्रित किया जा सकता है, और प्राण तत्व पर नियन्त्रण कर के मन पर विजय पाई जा सकती है, मन पर विजय पाना वासनाओं पर विजय पाना है । यही चित्त वृत्तियों का निरोध है ।
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फिर चित्त को प्रत्याहार यानि अन्तर्मुखी कर एकाग्रता द्वारा कुछ सुनिश्चित धारणा द्वारा ध्यान किया जा सकता है, और ध्यान द्वारा समाधि लाभ प्राप्त कर परम तत्व यानि परमात्मा के साथ 'योग' यानि समर्पित होकर जुड़ा या उपलब्ध हुआ जा सकता है ।
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फिर इस साधना में सहायक हठ योग आदि का आविष्कार हुआ । फिर यम नियमों की खोज हुई । फिर इस समस्त प्रक्रिया को क्रमबद्ध रूप से सुव्यवस्थित कर योग विज्ञान प्रस्तुत किया गया । मूल आधार है श्वास-प्रश्वास पर ध्यान । यही सहज (सह+ज) योग है ।
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बौद्ध मतानुयायी साधकों ने इसे विपासना यानि विपश्यना और अनापानसति योग कहा जिसमें साथ में कोई मन्त्र नहीं होता है । योगदर्शन व तंत्रागमों और शैवागमों में श्वास-प्रश्वास के साथ दो बीज मन्त्र 'हँ' और 'स:' जोड़कर एक धारणा के साथ ध्यान करते हैं । इसे अजपाजाप कहते हैं ।
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इनमें यम(अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य, अपरिग्रह) और नियम (शौच, संतोष, तप, स्वाध्याय, ईश्वर प्रणिधान) की अनिवार्यता इसलिए कर दी गयी क्योंकि योग साधना से कुछ सूक्ष्म शक्तियों का जागरण होता है । यदि साधक के आचार विचार सही नहीं हुए तो या तो उसे मस्तिष्क की कोई गंभीर विकृति हो सकती है या सूक्ष्म जगत की आसुरी शक्तियां उस को अपने अधिकार में लेकर अपना उपकरण बना सकती हैं ।
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(प्राणायाम एक दुधारी तलवार है । यदि साधक के आचार-विचार सही हैं तो वह उसे देवता बना देती है, और यदि साधक कुविचारी है तो वह असुर यानि राक्षस बन जाता है । इसीलिए सूक्ष्म प्राणायाम साधना को गोपनीय रखा गया है । वह गुरु द्वारा प्रत्यक्ष शिष्य को प्रदान की जाती है । गुरु भी यह विद्या उसकी पात्रता देखकर ही देता है ।)
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भारत की विश्व को सबसे बड़ी देन -- आध्यात्म, विविध दर्शन शास्त्र, अहैतुकी परम प्रेम यानि भक्ति व समर्पण की अवधारणा, वेद, वेदांग, पुराणादि अनेक ग्रन्थ, सब के उपकार की भावना के साथ साथ योग दर्शन भी है जिसे भारत की आस्तिक और नास्तिक(बौद्ध, जैन आदि) दोनों परम्पराओं ने स्वीकार किया है ।
इस चर्चा का समापन यहीं करता हूँ । धन्यवाद ।
ॐ नमः शिवाय ।

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