#daduji
॥ श्री दादूदयालवे नमः॥
*सवैया ग्रन्थ(सुन्दर विलास)*
साभार ~ @महंत बजरंगदास शास्त्री जी,
पूर्व प्राचार्य - श्री दादू आचार्य संस्कृत महाविद्यालय(जयपुर) व
राजकीय आचार्य संस्कृत महाविद्यालय(चिराणा, झुंझुनूं, राजस्थान)
.
*२२. विपर्यय को अंग *
॥ श्री दादूदयालवे नमः॥
*सवैया ग्रन्थ(सुन्दर विलास)*
साभार ~ @महंत बजरंगदास शास्त्री जी,
पूर्व प्राचार्य - श्री दादू आचार्य संस्कृत महाविद्यालय(जयपुर) व
राजकीय आचार्य संस्कृत महाविद्यालय(चिराणा, झुंझुनूं, राजस्थान)
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*२२. विपर्यय को अंग *
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*अंधा तीनि लोक कौं देखै,*
*अंधा तीनि लोक कौं देखै,*
*बहिरा सुनै बहुत बिधि नाद ।*
*नकटा बास कमल की लेवै,*
*नकटा बास कमल की लेवै,*
*गूंगा करै बहुत संवाद ॥*
*टूटा पकरि उठावै पर्वत,*
*टूटा पकरि उठावै पर्वत,*
*पंगुल करै नृत्य आहलाद ।*
*जो कोउ याकौ अर्थ बिचारै,*
*जो कोउ याकौ अर्थ बिचारै,*
*सुन्दर सोई पावै स्वाद ॥२॥*
*(क)*
*अंधा तीन लोक कौं देखे* : सांसारिक पदार्थों के प्रति उपेक्षा भाव रखते हुए, उनकी ओर न देखते हुए आत्मदृष्टि या ब्रह्मदृष्टि से सर्वत्र सब को देखना । जैसा कि भगवद्गीता में कहा है -
"यो मां पश्यति सर्वत्र, सर्व च मयि पश्यति ।
तस्याहं न प्रणश्यामी स च मे न प्रणश्यति ॥"
(अ० ६, श्लो० ३०)
*बहिरा सुनै बहुत विधि नाद* : बाह्य शब्दों के श्रवण की उपेक्षा कर आन्तरिक ध्वनि(अनाहत नाद) सुनना, या अनासक्त(उदासीन) भाव से अर्थात् बहरा हो कर सब कुछ(लोक व्यवहार की) बातें सुनना या समस्त व्यवहार करना ।
*नकटा बास कमल की लेवै* : लोकलज्जा का परित्याग(नकटा बन) कर कमल गन्ध रूप भगवद् भक्ति का आनन्द लेना ।
*गूँगा करै बहुत संवाद* : सांसारिक बातों की कुछ भी चर्चा न करते हुए भगवच्चर्या या निरंज्ज्न निराकार प्रभु की चर्चा में निरन्तर लीन रहना ।
*टूँटा पकरि उठावै परबत* : समष्त लोक व्यवहार करते हुए भी वस्तुतः निष्क्रिय हो हो कर रहना । अर्थात सांसारिक कर्मों के कर्तत्वाभिमान से सर्वथा दूर रहना(टूँटा = बिना हाथ वाला पुरुष) ।
*पंगुल करै नृत्य आहलाद* : संसार में वासना रहित होकर संतोष वृत्ति से आनन्दित रहना ।(पंगुल = बिना हाथ - पैर वाला)
*(ख)*
इस छन्द का दूसरा अर्थ यह भी हो सकता है -
वह परब्रह्म परमात्मा हमारे समान चर्मचक्षु वाला न होकर भी दिव्य दृष्टि से इस त्रिलोकी का द्रष्टा बना हुआ है । चर्मश्रोत्र न होने पर भी सब कुछ सुन रहा है ।
चर्मनासिका न होने पर भी हमारे हृत्कमल के पवित्र भावों की सुगन्ध ले रहा है । चर्मजिह्वा न होने पर भी हमारे हृदय में बोल रहा है या बोलने की प्रेरणा दे रहा है ।
निष्क्रिय होकर भी समस्त विश्व के पालन पोषण का भार उठा रहा है । निष्काम होकर भी सब लीला कर रहा है । उपनिषद् में भी कहा है - "पश्चत्यचक्षु : स श्रृणोत्यकर्ण:" ।
*महाराज श्री सुन्दरदास जी* कहते हैं - जो साधक सन्तों द्वारा प्रयुक्त इन गूढ शब्दों का आध्यात्मिक अर्थ समझ लेता है वही ब्रह्मानन्द का वास्तविक आनन्दानुभव कर सकता है ॥२॥
(क्रमशः)
(क्रमशः)

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