शुक्रवार, 6 मार्च 2015

= ३१ =

#daduji
卐 सत्यराम सा 卐
जब मैं साँचे की सुधि पाई ।
तब तैं अंग और नहीं आवै,
देखत हूँ सुखदाई ॥टेक॥
ता दिन तैं तन ताप न व्यापै,
सुख दुख संग न जाऊँ ।
पावन पीव परस पद लीन्हा,
आनंद भर गुन गाऊँ ॥१॥
सब सौं संग नहीं पुनि मेरे,
अरस परस कुछ नाँहीं हीं ।
एक अनंत सोई संग मेरे,
निरखत हूँ निज मांहीं ॥२॥
तन मन मांहिं शोध सो लीन्हा,
निरखत हूँ निज सारा ।
सोई संग सबै सुखदाई,
दादू भाग्य हमारा ॥३॥
*(#श्रीदादूवाणी ~ पद. ३४४)*
https://youtu.be/If5QuF9NDek
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साभार : @Osho Prem Sandesh ~
प्रश्न: भगवान बुद्ध ने कहा है: अपने दीए आप बनो। तो क्या सत्य की खोज में किसी भी सहारे की कोई जरूरत नहीं है ?
ओशो : यह जानने को भी तुम्हें बुद्ध के पास जाना पड़ेगा न ! - अपने दीए आप बनो। इतनी ही जरूरत है गुरु की। गुरु तुम्हारी बैसाखी नहीं बनने वाला है। जो बैसाखी बन जाए तुम्हारी, वह तुम्हारा दुश्मन है, गुरु नहीं है। क्योंकि जो बैसाखी बन जाए तुम्हारी, वह तुम्हें सदा के लिए लंगड़ा कर देगा। और अगर बैसाखी पर तुम निर्भर रहने लगे, तो तुम अपने पैरों को कब खोजोगे ? अपनी गति कब खोजोगे ? अपनी ऊर्जा कब खोजोगे ?
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जो तुम्हें हाथ पकड़कर चलाने लगे, वह गुरु तुम्हें अंधा रखेगा। जो कहे: मेरा तो दीया जला है; तुम्हें दीया जलाने की जरूरत क्या ? देख लो मेरी रोशनी में। चले आओ मेरे साथ। उस पर भरोसा मत करना। क्योंकि आज नहीं कल रास्ते अलग हो जाएंगे। कब रास्ते अलग हो जाएंगे, कोई भी नहीं जानता। कब मौत आकर बीच में दीवाल बन जाएगी। कोई भी नहीं जानता। तब तुम एकदम घुप्प अंधेरे में छूट जाओगे। गुरु की रोशनी को अपनी रोशनी मत समझ लेना।
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ऐसी भूल अक्सर हो जाती है।
सूफियों की कहानी है कि दो आदमी एक रास्ते पर चल रहे हैं। एक आदमी के हाथ में लालटेन है। और एक आदमी के हाथ में लालटेन नहीं है। कुछ घंटों तक वे दोनों साथ-साथ चलते रहे हैं। आधी रात हो गयी। मगर जिसके हाथ में लालटेन नहीं है, उसे इस बात का खयाल भी पैदा नहीं होता कि मेरे हाथ में लालटेन नहीं है। जरूरत क्या है ?
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दूसरे आदमी के हाथ में लालटेन है। और रोशनी पड़ रही है। और जितना जिसके हाथ में लालटेन है उसको रोशनी मिल रही है, उतनी उसको भी मिल रही है जिसके हाथ में लालटेन नहीं है। दोनों मजे से गपशप करते चले जाते हैं। फिर वह जगह आ गयी, जहां लालटेन वाले ने कहा: अब मेरा रास्ता तुमसे अलग होता है। अलविदा। फिर घुप्प अंधेरा हो गया।
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आज नहीं कल गुरु से विदा हो जाना पड़ेगा। या गुरु विदा हो जाएगा। सदगुरु वही है, जो विदा होने के पहले तुम्हारा दीया जलाने के लिए तुम्हें सचेत करे। इसलिए बुद्ध ने कहा है: अप्प दीपो भव। अपने दीए खुद बनो। यह भी जिदंगीभर कहा, लेकिन नहीं सुना लोगों ने। जिन्होंने सुन लिया, उन्होंने तो अपने दीए जला लिए। लेकिन कुछ इसी मस्ती में रहे कि करना क्या है ! बुद्ध तो हैं।
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आनंद से कही यह बात उन्होंने। आनंद भी उन्हीं नासमझों में एक था, जो बुद्ध की रोशनी में चालीस साल तक चलता रहा। स्वभावतः, चालीस साल तक रोशनी मिलती रहे, तो लोग भूल ही जाएंगे कि अपने पास रोशनी नहीं है; कि हम अंधे हैं। चालीस साल तक किसी जागे का साथ मिलता रहे, तो स्वभावतः भूल हो जाएगी। लोग यह भरोसा ही कर लेंगे कि हम भी पहुंच ही गए। रोशनी तो सदा रहती है। भूल-चूक होती नहीं। भटकते नहीं। गड्ढों में गिरते नहीं।
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और आनंद बुद्ध के सर्वाधिक निकट रहा। चालीस साल छाया की तरह साथ रहा। सुबह-सांझ, रात-दिन। चालीस साल में एक दिन भी बुद्ध को छोड़कर नहीं गया। बुद्ध भिक्षा मांगने जाएं, तो आनंद साथ जाएगा। बुद्ध सोएं, तो आनंद साथ सोएगा। बुद्ध उठें, तो आनंद साथ उठेगा। आनंद बिलकुल छाया था। भूल ही गया होगा। उसको हम क्षमा कर सकते हैं। चालीस साल रोशनी ही रोशनी ! उठते-बैठते रोशनी। जागते-सोते रोशनी। भूल ही गया होगा।
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फिर बुद्ध का अंतिम दिन आ गया। रास्ते अलग हुए। और बुद्ध ने कहा कि अब मेरी आखिरी घड़ी आ गयी। अब मैं विदा लूंगा। भिक्षुओ ! किसी को कुछ पूछना हो, तो पूछ लो। बस, आज मैं आखिरी सांस लूंगा।
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जिन्होंने अपने दीए जला लिए थे, वे तो शांत अपने दीए जलाए बैठे रहे परम अनुग्रह से भरे हुए-कि न मिलता बुद्ध का साथ, तो शायद हमें याद भी न आती कि हमारे भीतर दीए के जलने की संभावना है, तो भी हमने न जलाया होता। हमें यह भी पता होता कि संभावना है, जल भी सकता है, तो विधि मालूम नहीं थी। गुरु का मतलब क्या होता है ? किसी और से पूछने गए; यह भी तुम खुद न खोज पाए !
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मुझसे लोग आकर पूछते हैं कि आपका गुरु कौन था ? हमने तो सुना कि आपका गुरु नहीं था ! जब आपने बिना गुरु के पा लिया, तो हम क्यों न पा लेंगे? मैं उनसे कहता हूं: मैं कभी किसी से यह भी पूछने नहीं गया कि बिना गुरु के मिलेगा कि नही !
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तुम जब इतनी छोटी सी बात भी खुद निर्णय नहीं कर पाते हो, तो उस विराट सत्य के निर्णय में तुम कैसे सफल हो पाओगे ? मिथ्या गुरुओं ने तुम्हें सदियों से यह सिखाया है: निर्भर होना। उन्होंने इतना निर्भर होना सिखा दिया कि जब कोई राजनैतिक रूप से भी तुम्हारी छाती पर सवार हो गया, तुम उसी पर निर्भर हो गए। तुम जी-हुजूर उसी को कहने लगे। तुम उसी के सामने सिर झुकाकर खड़े हो गए। तुम्हें आजादी का रस ही नहीं लगा; स्वाद ही नहीं लगा।
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अगर कोई मुझसे पूछे, तो तुम्हारी गुलामी की कहानी के पीछे तुम्हारे गुरुओं का हाथ है। उन्होंने तुम्हें मुक्ति नहीं सिखायी, स्वतंत्रता नहीं सिखाई।
काश! बुद्ध जैसे गुरुओं की तुमने सुनी होती, तो इस देश की गुलामी का कोई कारण नहीं था। काश! तुमने व्यक्तित्व सीखा होता, निजता सीखी होती; काश ! तुमने यह सीखा होता कि मुझे मुझी होना है; मुझे किसी दूसरे की प्रतिलिपी नहीं होना है; और मुझे अपना दीया खुद बनना है, तो तुम बाहर के जगत में भी पैर जमाकर खड़े होते। यह अपमानजनक बात न घटती कि चालीस करोड़ का मुल्क मुट्ठीभर लोगों का गुलाम हो जाए ! कोई भी आ जाए और यह मुल्क गुलाम हो जाए !
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जरूर इस मुल्क की आत्मा में गुलामी की गहरी छाप पड़ गयी। किसने डाली यह छाप ? किसने यह जहर तुम्हारे खून में घोला ? किसने विषाक्त की तुम्हारी आत्मा ? किसने तुम्हें अंधेरे में रहने के लिए विधियां सिखायीं ? तुम्हारे तथाकथित गुरुओं ने। वे गुरु नहीं थे। गुरु तो बुद्ध जैसे व्यक्ति ही होते हैं, जो कहते हैं, अप्प दीपो भव !
ओशो
एस धम्मो सनंतनो, भाग 12

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