॥ श्री दादूदयालवे नमः॥
*सवैया ग्रन्थ(सुन्दर विलास)*
साभार ~ @महंत बजरंगदास शास्त्री जी,
पूर्व प्राचार्य - श्री दादू आचार्य संस्कृत महाविद्यालय(जयपुर) व
राजकीय आचार्य संस्कृत महाविद्यालय(चिराणा, झुंझुनूं, राजस्थान)
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*२२. विपर्यय को अंग*
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*पांनी जरै पुकारे निसि,*
*ताकौ अग्नि बुझावै आइ ।*
*हूं सीतल तूं तप्त भयौ क्यौं,*
*बारं बार कहै समुझाइ ॥*
*मेरी लपट तोहि जौ लागै,*
*तौ तूं भी सीतल व्है जाइ ।*
*कबहूं जरनि फेरि नहिं उपजै,*
*सुन्दर सुख मैं रहै समाइ ॥२६॥*
*एक अन्य आश्चर्यजनक घटना सुनिये –*
*पांनी जरै पुकारै निसदिन* : ईश्वर - प्रेम रूप जल से यह जीव जलता रहता है । इस ताप को ब्रह्मज्ञान या विरह की अग्नि आकर शीतलता प्रदान करती है ।
*हूं सीतल तूं तपत भयो क्यों* : और पूछती है कि मैं तो शीतल हूँ, फिर तूँ क्यों जल रहा है ? और उसको बार बार विषयभोगों से तप्त न होने का उपदेश देती है ।
*मेरी लपट तोहि जौ लागै* : और बताती है, मेरी इस शीतलता का झौंका तुझको एक बार भी लग जाय तो तूँ भी शीतल हो सकता है ।
*कबहूं जरनि फेरि नहिं उपजै* : *श्री सुन्दरदास जी* कहते हैं - विरहाग्नि कहती है कि एक बार मेरी शीतलता का अनुभव कर लेने के बाद तुझे सांसारिक भोगों की जलन नहीं सता पायगी, तथा तूँ आगे अपना जीवन सुखपूर्वक बिता सकेगा ॥२६॥
(क्रमशः)
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