शनिवार, 7 मार्च 2015

#daduji
॥ श्री दादूदयालवे नम: ॥ 
१५३.(गुजराती भाषा) । मकरन्द ताल ~
गोविन्दा जोइबा देरे, जे बरजे ते वारी रे । गोविन्दा जोइबा दे रे ।
आदि पुरुष तूँ अछय अम्हारो, कंत तुम्हारी नारी रे ॥ टेक ॥
अंगै संगै रंगै रमिये, देवा दूर न कीजे रे ।
रस मांही रस इम थई रहिये, ये सुख अमने दीजे रे ॥ १ ॥
सेजड़िये सुख रंग भर रमिये, प्रेम भक्ति रस लीजे रे ।
एकमेक रस केलि करंतां, अम्हे अबला इम जीजे रे ॥ २ ॥
समर्थ स्वामी अन्तरजामी, बार बार कांइ बाहे रे ।
आदैं अन्तैं तेज तुम्हारो, दादू देखे गाये रे ॥ ३ ॥
टीका ~ ब्रह्मऋषि सतगुरुदेव इसमें विरह विनती दिखा रहे हैं कि हे गोविन्द परमेश्‍वर ! आपके दर्शन हम विरहीजनों को अब करने दीजिये । जो आपके दर्शनों में अन्तर करने वाले हैं, उनको हमारे हृदय से निवारण करिये । आप ही हमारे आदि - अनादि पुरुष कहिये स्वामी हो । हे कंत ! हम तो विरहीजन आपकी ही ‘नारी’, कहिये सेविका हैं । हे नाथ ! आपकी पराभक्ति रूप रंग के द्वारा अपने स्वरूप में हमें अभेद करिये । यही विरहीजनों की इच्छा है । हे देव ! अब हमको आप अपने स्वरूप से अलग नहीं करना । जैसे रस में रस मिल जाता है, इसी प्रकार हम आपके स्वरूप में मिलकर रहें, ऐसा आनन्द हमको आप दीजिये । और आप हमारे अन्तःकरण रूपी सेज पर एकत्व - भावना रूपी रंग भरकर हमारे साथ रमण करिये, जिससे फिर हम आपकी प्रेमाभक्ति रूपी अमृत - रस को पान करते रहें । आपके स्वरूप में ओत - प्रोत होकर किलोल करें । इस प्रकार हम विरहीजन, जीवनभाव को प्राप्त होवें । हे हमारे समर्थ स्वामी ! आप तो अन्तर की जानने वाले अन्तर्यामी होकर भी हमको क्यों बहकाते हो ? हम तो आपके तेजोमय स्वरूप को सृष्टि के आदि से अन्त पर्यन्त ज्ञानरूपी नेत्रों से देखकर आपका गायन कर रहे हैं ।

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