daduji
卐 सत्यराम सा 卐
विरह अग्नि में जालिबा, दरशन के तांईं ।
दादू आतुर रोइबा, दूजा कुछ नांहिं ॥७२॥
हे विरहीजनों ! भगवत् के दर्शनों के निमित्त अपने अहम्ता, ममता आदिक अभिमान को जलाइये और विरह अग्नि से पूर्ण होकर आतुरता सहित भगवत-दर्शनों के लिए पूर्वोक्त रीति से विलाप करिए । यही विरहीजनों का भागवद्दर्शन का कत्र्तव्य उपाय है, तीर्थव्रतादि अन्य कनिष्ठ उपाय विरहीजनों के अनुरूप नहीं है ॥७२॥
विरह अग्नि सब तन तपे, बसत सदा हिये कंत ।
यातैं विरहनी नैन जल, निशदिन हिये सिचंत ॥
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विरह पतिव्रत
साहिब सौं कुछ बल नहीं, जनि हठ साधै कोइ ।
दादू पीड़ पुकारिये, रोतां होइ सो होइ ॥७३॥
ज्ञान ध्यान सब छाड़ दे, जप तप साधन जोग ।
दादू विरहा ले रहै, छाड़ सकल रस भोग ॥७४॥
हे विरहीजनों ! सामान्य ज्ञान, ध्यान, जप-तप, अष्टांगयोग, सब प्रेम के बिना और जो भी साधन हैं, उन सबको त्याग दो । और इस लोक में तथा परलोक के इन्द्रियजन्य रसों के भोगों की आसक्ति को त्यागकर केवल बिरहभाव को उत्पन्न करिये, अष्टांग-योग आदि छोड़ने के हेतु कहते हैं कि "साहिब सौं कुछ बल नहीं'' - अर्थात् सर्वशक्तिवान परमेश्वर के समक्ष "अजाजील'' आदि की तरह, हम कोई भी उपाय से पार नहीं पा सकते हैं, इसी के हठयोग आदि क्रियाओं से क्या लाभ है ? हे विरहीजन ! तुम तो परमेश्वर को विरह सहित पुकारो, क्योंकि तुम्हारे रोवते-रोवते परमेश्वर जो कुछ करेंगे वह सब उत्तम है ॥७३-७४॥
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इस प्रसंग में उद्धव जी और गोपियों का संवाद भी अति उत्तम उल्लेखनीय है ।
"नाहं वेदैर्न तपसा न दानेन न चेज्यया'' -गीता
"नाहि साधन-सम्पत्या हरिस्तुष्यति कर्हिचित ।
भक्तानां दैन्यमेवैकं हरितोषण-साधनम् ॥ ''
"भक्त्या तुष्यति केवलं न तु गुणै: भक्ति-प्रियो माधव: ।''
(भगवान् ज्ञान, ध्यान तप, दान, यज्ञ आदि किसी अन्य साधन से प्रसन्न नहीं होते । वे तो केवल भक्ति और प्रेम के भूखे हैं ।)
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जब तैं पिय मोहि परिहरी, मैं परिहारी छै बोल ।
खाना पीना खेलना, काजल तिलक तम्बोल ॥
शेर :-
है प्रेम जगत् में सार, और कुछ सार नहीं है ॥ टेक ॥
बोले घनश्याम उद्धव से, जरा बृन्दाबन तुम जाना ।
वहाँ की गोपियों को ज्ञान का, कुछ तत्व समझाना ।
विरह की बेदना में वे सदा बेचैन रहती हैं ।
तड़फ कर आह भर-भर कर, यही रो - रो कर कहती हैं ॥१॥
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कहा उद्धव ने हँस कर मैं अभी जाता हूँ बृन्दाबन ।
जरा देखूं कि कैसा है, कठिन अनुराग का बन्धन ।
हैं कैसी गोपियां जो, ज्ञान - बल को कम बताती हैं ।
निरर्थक लोक - लीला का, यही गुण गान गाती हैं ॥२॥
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चले मथुरा से जब कुछ दूर, बृन्दाबन निकट आया ।
वहीं से प्रेम ने अपना अनोखा रंग दिखलाया ।
उलझ कर वस्त्र में काँटे, लगे उद्धव को समझाने ।
तुम्हारा ज्ञान - पर्दा फाड़ देंगे प्रेम दीवाने ॥३॥
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बिटप झुक कर ये कहते थे, इधर आओ, इधर आओ ।
पपैया कह रहा था पीव कहाँ, यह भी तो बतलाओ ।
जमुना नदी की नाद, हरि हर का सुनाती थी ।
भँवर गुँजार से भी यह, मधुर आवाज आती थी ॥४॥
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वहाँ पहुँचे जहाँ था, गोपियों का जिस जगह मण्डल ।
वहाँ थी शान्त पृथ्वी, वायु धीमी, व्योम था निर्मल ।
सहस्त्रों गोपियों के मध्य में, श्री राधिका रानी ।
सभी के मुख से रह-रह कर, निकलती थी यही बानी ॥५॥
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कहा उद्धव ने जाकर के कि, मैं मथुरा से आया हूँ ।
सुनाता हूँ सन्देशा कृष्ण का, जो साथ लाया हूँ ।
जब आत्मशक्ति की अलख, निर्गुण कहाती हो ।
वृथा क्यों मोह - वश होकर, सगुण के गान गाती हो ॥६॥
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गोपियों के बोल -
किन्तु निर्गुण हैं हमीं, तुम तो कौन कहता है ।
खबर किसकी अलख हम तुम, तो किस को कौन लखता है ।
नजर अद्वैत की रखते, तो फिर क्यों द्वैत लेते हो ।
अरे खुद ब्रह्म होकर, ब्रह्म को उपदेश देते हो ॥७॥
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अभी तुम खुद नहीं समझे, कि किस को योग कहते हैं ।
सुनो इस और योगी द्वैत में, अद्वैत रहते हैं ।
उधर मोहन बने राधा, वियोगिनी की जुदाई में ।
इधर राधा बनी है श्याम, मोहन की जुदाई में ॥८॥
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कहा राधा ने उद्धव से, कि तुम सन्देशा खूब लाये हो ।
परन्तु ये याद रखो, प्रेम की नगरी में आये हो ।
संभालो योग की पूँजी, न हाथों से निकल जाये ।
कहीं विरहाग्नि में यह ज्ञान की, पोथी न जल जाये ॥९॥
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सुना जब प्रेम का उद्वेग, उद्धव की खुली आँखें ।
पड़ी थी ज्ञान मद की धूल, जिनमें ये धुली आँखें ।
हुआ रोमांच तन में, अश्रु बिन्दु छलक आया है ।
गिरा श्री राधिका पद पर, कहा गुरु मंत्र पाया है ॥१०॥
(श्री दादूवाणी ~ विरह का अंग)
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