बुधवार, 1 अप्रैल 2015

२२. विपर्यय को अंग ~ २८

#daduji
॥ श्री दादूदयालवे नमः॥ 
*सवैया ग्रन्थ(सुन्दर विलास)* 
साभार ~ @महंत बजरंगदास शास्त्री जी, 
पूर्व प्राचार्य - श्री दादू आचार्य संस्कृत महाविद्यालय(जयपुर) व 
राजकीय आचार्य संस्कृत महाविद्यालय(चिराणा, झुंझुनूं, राजस्थान) 
*२२. विपर्यय को अंग* 
*पंथी माँहि पंथ चलि आयौ,*
*सो वह पंथ लख्यौ नहिं जाइ ।*
*वाही पंथ चल्यौ उठि पंथी,*
*निर्भय देश पहूँच्यौ आइ ॥*
*तहां दुकाल परै नहिं कबहूं,*
*सदा सुभिक्ष रह्यौ ठहराइ ।*
*सुन्दर दुखी न कोऊ दीसै,*
*अक्षय सुख मैं रहे समाइ ॥२८॥*
*पंथी माँहि पंथ चलि आयो* : यह मुमुक्ष जीव(सन्त पुरुष) यात्री के रूप में यात्रा(ज्ञान भक्ति के मार्ग) पर निकल पड़ा ।
*वाही पंथ चल्यौ उठि पंथी* : उस मार्ग पर चलते हुए वह सन्त यात्री किसी भय रहित अद्वैत ब्रह्मरूप उस प्रदेश में जा पहुँचा ।
*तहां दुकाल परै नहिं कब हूँ* : जहाँ कभी दुष्काल - दुर्भिक्ष(जन्म - मरण की परम्परा) नहीं पड़ता, अपितु सदा सुभिक्ष(अखण्ड ब्रह्मानन्द) ही रहता है ।
*सुन्दर दुखी न कोऊ दीखै* : *श्री सुन्दरदास जी* कहते हैं - उस प्रदेश में कोई भी दुःख ग्रस्त नहीं दीखायी देता । अपितु वहाँ के सभी निवासी अखण्ड सुख (ब्रह्मानन्द)में दिन रात निमग्न रहते हैं ॥२८॥ 
(क्रमशः)

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