बुधवार, 1 अप्रैल 2015

= ८७ =

daduji
卐 सत्यराम सा 卐
*दादू जब दिल मिली दयालु सौं,*
*तब पलक न पड़दा कोइ ।*
*डाल मूल फल बीज में, सब मिल एकै होइ ॥*
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साभार : @मुक्ता अरोड़ा स्वरूप निश्चय ~
जीव ईश्वर का अंश है, इसलिए वह जिस मत को पकड़ लेता है, वही उसको सत्य दीखने लग जाता है। अतः साधक को चाहिए कि वह अपने मत का अनुसरण तो करे, पर उसको पकड़े नहीं अर्थात उसका आग्रह न रखे। न ज्ञान का आग्रह रखे, न प्रेम का। वह अपने मत को श्रेष्ठ और दूसरे मत को निकृष्ट न समझे, प्रत्युत सबका समानरुप से आदर करे।
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गीता के अनुसार जैसे 'मोहकलिल' का त्याग करना आवश्यक है, ऐसे ही 'श्रुतिविप्रतिपत्ति' का भी त्याग करना आवश्यक है(गीता 2:52-53); क्योंकि ये दोनों ही साधक को अटकाने वाले हैं । इसलिए साधक को जब तक अपने में दार्शनिक मतभेद दीखे, सम्पूर्ण मतों में समान आदरभाव न दीखे, तब तक उसको संतोष नहीं करना चाहिए। वह साधन-तत्त्व तक तो पहुँच सकता है, पर साध्य तक नहीं पहुँच सकता।
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राग-द्वेष होने से सत्य की खोज में बड़ी भारी बाधा लग जाती है। परन्तु राग-द्वेष न होने पर साधक सत्य की खोज करता है कि जब वास्तविक तत्त्व एक ही है, तो फिर मतभेद क्यों है ? इसलिए वह मुक्ति में भी संतोष नहीं करता। सत्य की खोज करते-करते वह खुद खो जाता है और 'वासुदेवः सर्वं' शेष रह जाता है !
"सत्य की खोज" pg. 9-10
-स्वामी रामसुखदासजी

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