शनिवार, 11 अप्रैल 2015

*= शिष्य चाँदाजी =*

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*#श्रीदादूचरितामृत*, *"श्री दादू चरितामृत(भाग-१)"
लेखक ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज,
पुष्कर, राजस्थान ।*
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*= दशम विन्दु =*
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*= शिष्य चाँदाजी =*
साँभर में एक दिन एक भोपा(देवजी का भक्त साधु) आया था, उसका नाम चाँदा था । उसने अपनी कमर में मोटे - मोटे घुंघुरे बाँद रखे थे । उसके चलते समय वे घुंघुरे खण - खण शब्द करते थे । वह देवजी को अपना इष्ट मानता था । वह नगर में ऊंचे स्वर से देवजी का यश गाता हुआ दादूजी के आश्रम पर भी जा पहुंचा ।
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दादूजी ने उनका रंग - ढंग देखकर तथा गायन सुनकर कहा - भाई ! अभी देवजी के दर्शन करने योग्य साधनों की धारणा तुम्हारे में नहीं ज्ञात होती है । यदि तुमने वैसे साधन धारण करे होते तो तुम्हारी आशा नष्ट हो जाती और तुम एक आसन पर बैठे हुये ही साधन जन्य अद्भुत खेल देखते, ऐसे नहीं फिरते । तब चाँदा ने मस्तक नमाकर के कहा - फिर आप ही कृपा करके वैसा साधन बताइये ।
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तब दादूजी ने यह पद कहा - -
"देवरे मंझे देव पायो, वस्तु अगोचर लखायो ॥टेक॥
अति अनूप ज्योति पति, सोई अंतर आयो ।
पिंड ब्रह्मांड सम, तुल्य दिखायो ॥१॥
सदा प्रकाश निवास निरंतर, सब घट मांहिं समायो ।
नैन निरख नेरो, हिरदै हेत लगायो ॥२॥
पूरब भाग सुहाग सेज सुख, सो हरि लेन पठायो ।
देव को दादू पार न पावे, अहो पै उनहीं चितायो ॥३॥"
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यह पद सुनाकर दादूजी ने चांदा को कहा - अब तुम अपनी आँखे बन्द करके अपने हृदय - मंदिर में देखो । उसने जब आँखे बन्द करके देखा तो उसे करोड़ों देव परमेश्वर की स्तुति करते हुये दिखाई दिये । तब उसे निश्चय हो गया कि परम देव तो एक परमेश्वर ही हैं, उसके कार्यरूप देव अनेक हैं ।
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फिर तो उसने सर्व से श्रेष्ठ देव एक परमेश्वर को जानकार दादूजी को अपने मन में गुरु मान लिया और दादूजी से मंत्र दीक्षा की प्रार्थना की । तब दादूजी ने उसे दीक्षा देकर निर्गुण ब्रह्म की उपासना पद्धति बता दी । फिर ये संम्यक साधना करके अच्छे भजनानन्दी संत हो गये हैं और दादूजी के ५२ थांमायती शिष्यों में हैं ।
(क्रमशः)

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