शनिवार, 11 अप्रैल 2015

२३. आपुने भाव को अंग ~ ६


#daduji
॥ श्री दादूदयालवे नमः॥ 
*सवैया ग्रन्थ(सुन्दर विलास)* 
साभार ~ @महंत बजरंगदास शास्त्री जी, 
पूर्व प्राचार्य - श्री दादू आचार्य संस्कृत महाविद्यालय(जयपुर) व 
राजकीय आचार्य संस्कृत महाविद्यालय(चिराणा, झुंझुनूं, राजस्थान) 
*२३. आपुने भाव को अंग* 
*आप ही कौ भाव सु तौ आपु कौं प्रगट होत,* 
*आपु ही आरोप करि आपु मन लायौ है ।* 
*देवी अन्य देव कोऊ भाव कै उपासै ताहि,* 
*कहै मैं तौ पुत्र धन इनही तैं पायौ है ॥*
*जैसैं स्वान हाड़ कौ चचौरि करि मानै मोद,* 
*आपु ही कौ मुख फोरि लोहू चाट खायौ है ।* 
*तैसैं ही सुन्दर यह आपु ही चेतनि आहि,* 
*आपुने अज्ञान करि और सौं बंधायौ है ॥६॥* 
आत्मभाव से आत्मा ही प्रकट होता है, परन्तु उसमें अन्यत्व का आरोप कर वह उसमें आसक्ति पैदा कर लेता है । 
अतः कोई अज्ञ पुरुष किसी देवी या देवता की अन्य भाव से उपासना करते हुए कहने लगता है कि मैंने यह सब धन सम्पति तथा पुत्र पौत्रादि का विशाल परिवार इसी देवता की कृपा से प्राप्त किया है । 
जैसे कोई कुत्ता सूखी हड्डी को चबाता हुआ उसमें बहुत स्वाद मानता हुआ हर्ष प्रकट करता है । वस्तुतः वह उस हड्डी के माध्यम से अपना मुख फोड़ कर उससे निकले रक्त से ही वह स्वाद चख रहा होता है । 
वैसे ही यह चेतन *श्री सुन्दरदास जी* के विचार में, स्वयं अपने अज्ञान के कारण, इस जगज्जाल के बन्धन में फँस गया है ॥६॥ 
(क्रमशः)

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