शनिवार, 11 अप्रैल 2015

॥ श्री दादूदयालवे नम: ॥
१८५. काल चेतावनी । भंगताल
साथी ! सावधान ह्वै रहिये ।
पलक मांहि परमेश्‍वर जाणै, कहा होइ कहा कहिये ॥ टेक ॥ 
बाबा, बाट घाट कुछ समझ न आवै, दूर गवन हम जाना ।
परदेशी पंथी चलै अकेला, औघट घाट पयाना ॥ १ ॥ 
बाबा, संग न साथी कोई नहीं तेरा, यहु सब हाट पसारा ।
तरवर पंखी सबै सिधाये, तेरा कौण गँवारा ॥ २ ॥ 
बाबा, सबै बटाऊ पंथ सिरानैं, सुस्थिर नांहीं कोई ।
अंति काल को आगे पीछे, बिछुरत बार न होई ॥ ३ ॥ 
बाबा, काची काया कौण भरोसा, रैन गई क्या सोवे ।
दादू संबल सुकृत लीजे, सावधान किन होवे ॥ ४ ॥ 
टीका ~ ब्रह्मऋषि सतगुरुदेव इसमें काल से सावधान कर रहे हैं कि हे साथी ! हमारे मन! इस मनुष्य शरीर में अब सावधान होकर रहना । अगले पलक में न मालूम क्या से क्या हो जाय ? इस बात को परमेश्‍वर ही जानते हैं । इसके विषय में क्या कहा जा सकता है ? हे संतों ! ‘दूर देश में’ कहिए परमेश्‍वर के स्वरूप में हमें जाना है । परन्तु इस मार्ग में बड़ी - बड़ी भयंकर काम, क्रोध, मोह आदि पहाड़ों की घाटियां चढ़ना है । इनको उल्लंघन करने का कोई उपाय हमारी समझ में नहीं आ रहा है । यह हमारा जीव परदेशी है और परमेश्‍वर प्राप्ति के मार्ग पर अकेले को चलना है । और फिर सामने विषय वासना रूपी बड़े - बड़े भयंकर घाट हैं और पैदल चलने का मार्ग है । हे संतों ! इस जीव का न तो कोई संगी है । न कोई साथ देने वाला ही है । ये सब संसार में, मैं, मेरा, कुल, कुटम्ब, सब आठवें दिन का हाट का पसारा है । जैसे वृक्ष के ऊपर पक्षी शाम को बैठते हैं और सवेरे सब अपने - अपने विचार से उड़ जाते हैं, इसी प्रकार ये सब रिश्ते नातेदार हैं । हे गँवार ! इनमें तेरा कौन है ? कोई किसी का साथ देने वाला नहीं है । हे संतों ! सभी बटाऊ रूप होकर मार्गे पर बैठे हुए हैं, इनमें कोई स्थिर रहने वाला नहीं है । सबका काल अंत कर रहा है, किसी का आगे और किसी का पीछे । इनके वियोग होने में कोई देर नहीं लगती । हे संतों ! यह शरीर तो कच्चे घड़े के समान है, इसके नाश होने में देर नहीं लगती । आयु रूपी रात्रि तो बीतती जा रही है । और मोह रूप निद्रा में, तूँ क्या सुख से सोता है ? हे मानव ! सुकृत कर्म रूपी ‘संबल’, कहिए धन इकट्ठा कर ले । इस मनुष्य शऱीर में सावधान क्यों नहीं होता है ?

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें