रविवार, 12 अप्रैल 2015

*= शिष्य टीलाजी =*

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*#श्रीदादूचरितामृत*, *"श्री दादू चरितामृत(भाग-१)"
लेखक ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज,
पुष्कर, राजस्थान ।*
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*= दशम विन्दु =*
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*= शिष्य टीलाजी =*
एक दिन सांभर में एक पुरुष आये, उनका नाम टीला था । वे ऋद्धि सिद्धि की खोज में जहां तहां भ्रमण कर रहे थे और सोच रहे थे कहीं कोई रसायनी मिल जाय तो भी मेरा कार्य हो सकता है । इस अभिलाषा से वे दादूजी के पास भी आये । प्रमाणादि शिष्टाचार करके हाथ जोड़े हुये सामने बैठ गये किंतु उनके मन में रसायन प्राप्ति की तीव्र इच्छा हो रही थी ।
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उसके मन की बात जान कर दादूजी ने कहा -
*सिद्धि हमारे सांइयाँ करामात करतार ।*
*ऋद्धि हमारे राम हैं, आगम अलख अपार ॥*
*दादू राम रसायन नित चबै, हरि है हीरा साथ ।*
*सो धन मेरे सांइयाँ, अलख खजीना हाथ ॥*
फिर यह पद सुनाया -
https://youtu.be/j0Vf7UCis_0
*सद्गुरु चरणा मस्तक धरणा,*
*राम नाम कहि दुस्तर तिरणा ॥टेक॥*
*अठ सिधि नव निधि सहजैं पावे,*
*अमर अभय पद सुख में आवे ॥१॥*
*भक्ति मुक्ति वैकुण्ठाँ जाइ,*
*अमर लोक फल लेवे आइ ॥२॥*
*परम पदारथ मंगलाचार,*
*साहिब के सब भरे भण्डार ॥३॥*
*नूर तेज है ज्योति अपार,*
*दादू राता सिरजनहार ॥४॥*
उक्त पद के सुनने से उनके मन में जो ऋद्धि, सिद्धि, रसायन आदि की इच्छा थी सो सब नष्ट हो गई । उन्होंने दादूजी के चरणों में अपना मस्तक रख दिया । अब इनको ऋद्धि, सिद्धि, रसायन आदि प्रत्यक्ष में ही मिथ्या भासने लगी ।
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उसी समय टीलाजी ने अपने को दादूजी का शिष्य मन से मान लिया और फिर दादूजी से दीक्षा ले ली तथा दादूजी के उपदेश से आन्तरध्यानादि का ज्ञान अर्थात् पद्धति प्राप्त करके अपने गुरुदेव दादूजी की सेवा में ही रहने का निश्चय कर लिया । ये दादूजी के मुख्य सेवक कहलाने लगे । ये जाति के पारासर ब्राह्मण थे -
"पारासर कुल पावन पावन । 
कीन्हों गुरु को सब विधि भावन ॥"
(आत्म बिहारी)
(क्रमशः)

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