रविवार, 12 अप्रैल 2015

॥ श्री दादूदयालवे नम: ॥
१८६.(गुजराती) तर्क चेतावनी । शूलताल ~
मेरा मेरा काहे को कीजे रे, जे कुछ संग न आवे ।
अनत करी नें धन धरीला रे, तेंऊ तो रीता जावे ॥ टेक ॥ 
माया बंधन अंध न चेते रे, मेर मांहिं लपटाया ।
ते जाणै हूँ यह बिलासौं, अनत विरोधे खाया ॥ १ ॥ 
आप स्वारथ यह विलूधा रे, आगम मरम न जाणे ।
जम कर माथे बाण धरीला, ते तो मन ना आणे ॥ २ ॥ 
मन विचारि सारी ते लीजे, तिल मांहीं तन पड़िबा ।
दादू रे तहँ तन ताड़ीजे, जेणें मारग चढ़िबा ॥ ३ ॥ 
टीका ~ ब्रह्मऋषि सतगुरुदेव इसमें, तर्क पूर्वक चेतावनी दे रहे हैं कि हे मन ! तूँ “यह मेरा है, यह मेरा है”, इस प्रकार क्यों करता है ? वह जो भी कुछ देख रहा है । वह न तो संग में आता है और न जाता है । तूँ जोड़ - जोड़ कर धन इकट्ठा करता है और जानता है कि यह मेरे अन्त में काम आवेगा । परन्तु तूँ तो रीता ही जायेगा । हे अंधे ! ये सब माया के बन्धन हैं । तूँ अब तक भी चेत कर नहीं देख रहा है । तूँ तो मैं मेरे में लिपट रहा है । तूँ जानता है, मैं इसको बिलसूंगा और दूसरों से विरोध करके, धन खाने के संग्रह करता है । अपने स्वार्थ के लिये ‘बिलूधा’ कहिए, चिपट रहा है । ‘आगे का’ कहिए परलोक का तुझे कुछ भी भय नहीं है । तेरे सिर के ऊपर यमराज ने अपना बाण रख रखा है । उसका तूँ मन में विचार नहीं करता है । हे मन ! अब तूँ विचार करके परमेश्‍वर के नाम का स्मरण कर । एक क्षण में, यह तेरा शरीर नष्ट होने वाला है । फिर यमराज के यहाँ तेरे तन पर ताड़ना होगी । जिस मार्ग से परमेश्‍वर की तरफ तुझे जाना है । उस भाव भक्ति रूपी मार्ग पर अब तूँ चल ।

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