रविवार, 12 अप्रैल 2015

२३. आपुने भाव को अंग ~ ७


#daduji
॥ श्री दादूदयालवे नमः॥ 
*सवैया ग्रन्थ(सुन्दर विलास)* 
साभार ~ @महंत बजरंगदास शास्त्री जी, 
पूर्व प्राचार्य - श्री दादू आचार्य संस्कृत महाविद्यालय(जयपुर) व 
राजकीय आचार्य संस्कृत महाविद्यालय(चिराणा, झुंझुनूं, राजस्थान) 
*२३. आपुने भाव को अंग* 
*इन्दव छंद* 
*नीचैं तैं नीचै रु ऊंचे तैं उपरि,* 
*आगैं तैं आगै है पीछै तैं पीछौ ।* 
*दूरि तैं दूरि नजीक तैं नैरौ हि,* 
*आडै तैं आडौ है तीछे तैं तीछौ ॥* 
*बाहर भीतर, भीतर बाहिर,* 
*ज्यौं कोऊ जानै त्यौं ही करि ईछो ।* 
*जैसौ ही आपुनौ भाव है सुन्दर,* 
*तैसौ ही है दृग खौलि कै बीछौ ॥७॥* 
*विचारानुसार दर्शन* : नीचे से नीचा, ऊँचे से उंचा, आगे(अग्रिम) से अग्रभाग तथा पीछे(पश्चिम) से पिछला भाग । 
दूर से दूर, समीप से समीप, टेढ़े से टेढ़ा तथा तिरछे(तिर्यक्) से तिरछा । 
बाहर या भीतर, भीतर या बाहर उसको जैसा जिसका ज्ञान है वैसा ही चाहने लगता है । 
*श्री सुन्दरदास जी* कहते हैं - जैसा उसका अपना आत्मभाव(विचार) है, वैसा ही वह उसे अपनी आंखों से देखता है ॥७॥ 
(क्रमशः)

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