रविवार, 12 अप्रैल 2015

॥ दादूराम सत्यराम ॥ 
परापरी पासै रहै, कोइ न जाणै ताहि ।
सतगुरु दिया दिखाइ करि, दादू रह्या ल्यौ लाइ ॥ ४१ ॥ 
टीका ~ 'परापरी' कहिए परमेश्वर, माया और जीव से, तथा कारण-कार्य भाव से दूर रहता हुआ भी सर्वव्यापक होने से पास रहता है और देहधारियों के शरीर में विद्यमान है, फिर भी उस सर्वव्यापक को कोई नहीं जानता है अर्थात् अविद्यावशात् इस तत्व पदार्थ को अब बहिर्मुख नहीं जान सकते । परन्तु सतगुरु जब ज्ञानरूपी दीपक का प्रकाश करते हैं, उस समय जिज्ञासु सतगुरु के उपदेश में एकाग्र वृत्ति करके आत्म-प्रत्यक्ष करता है । 'परापरी' शब्द से सगुण एवं निर्गुण का भी ज्ञान होता है ॥ ४१ ॥ 
बहिरन्तश्च भूतानामचरं चरमेव च । 
सूक्ष्मत्वात् तदविज्ञेयं दूरस्थं चान्तिके च तत् ॥ 
(वह चराचर प्राणियों के बाहर भी है, दूर भी है और पास भी है तथा अति सूक्ष्म होने से अविज्ञेय है ।) 

पूर्व प्रसंग में सतगुरु के उपदेश से शिष्य को परमात्मा का अप्रत्यक्ष ज्ञान हुआ है ~
अर्थात् परोक्ष ज्ञान हुआ है । अब आत्मप्रत्यक्ष कहिये, अपरोक्ष ज्ञान के लिए सतगुरु से प्रार्थना करता है :-
शिष्य जिज्ञासा
जिन हम सिरजे सो कहाँ, सतगुरु देहु दिखाइ ।
दादू दिल अरवाह का, तहँ मालिक ल्यौ लाइ ॥ ४२ ॥ 
टीका ~ जिस प्रभु ने हमारी रचना की है वह कहाँ है ? हे सतगुरु! कृपा करके उस अन्तर्यामी का प्रत्यक्ष ज्ञान कराओ । हे शिष्य ! जीवात्मा उसका जो दिल ह्रदय गुहा (गुफा) बुद्धि है, उसमें मालिक कहिये तेरा प्रभु विराजता है । उस जगह अर्थात् अपने आत्मस्वरूप में ही मन की वृत्तियों को तत्स्वरूप बनाओ ॥ ४२ ॥

पूर्व साखी में सतगुरु ने प्रभु को ह्रदय में बताया है, किन्तु अविद्या का पड़दा दूर नहीं होने से शिष्य को स्वरूप का बोध नहीं होता है । अब शिष्य पुन: सतगुरु से नम्र भाव से, अविद्या अन्धकार दूर करने की प्रार्थना करता है ।
मुझ ही मैं मेरा धणी, पड़दा खोलि दिखाइ ।
आत्म सौं परमात्मा, प्रकट आण मिलाइ ॥ ४३ ॥ 
टीका ~ हे दयामूर्ते ! यदि मेरा मालिक मेरे अन्दर ही है, तो "पड़दा'' कहिये अविद्या अन्धकार को हटा करके आत्मसाक्षात्कार कराओ । हे सतगुरो ! आप दयालु हो, इसलिए मेरे चित्त को प्रभु भक्ति में एकाग्र करके, सर्वव्यापक प्रभु का साक्षात्कार कराइए एवं अपरोक्ष रूप से मुझ अज्ञानी को प्रत्यक्ष दर्शन कराइए ॥ ४३ ॥ 

(श्री दादूवाणी ~ गुरुदेव का अंग) 
(चित्र सौजन्य ~ मुक्त अरोड़ा स्वरुप निश्चय)

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