#daduji
卐 सत्यराम सा 卐
दादू काल रूप मांही बसै, कोई न जानै ताहि ।
यह कूड़ी करणी काल है, सब काहू को खाइ ॥
*दादू विष अमृत घट में बसैं, दोन्यों एकै ठाँव ।*
*माया विषय विकार सब, अमृत हरि का नाँहीं व ॥*
दादू कहाँ मुहम्मद मीर था, सब नबियों सिरताज ।
सो भी मर माटी हुवा, अमर अलह का राज ॥
केते मर मांटी भये, बहुत बड़े बलवन्त ।
दादू केते ह्वै गये, दाना देव अनन्त ॥
दादू धरती करते एक डग, दरिया करते फाल ।
हाकों पर्वत फाड़ते, सो भी खाये काल ॥
चंद, सूर, धर, पवन, जल, ब्रह्मांड खंड प्रवेश ।
सो काल डरै करतार तैं, जै जै तुम आदेश ॥
पवना, पानी, धरती, अंबर, विनशै रवि, शशि, तारा ।
पंत तत्त्व सब माया विनशै, मानुष कहा विचारा ॥
दादू विनशैं तेज के, माटी के किस मांहि ।
अमर उपावणहार है, दूजा कोई नांहि ॥
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साभार : @सुमीत चोपरा ~
जिनके नौबति बाजती, मैंगल बंधते बारि।
एकै हरि के नाव बिन, गए जनम सब हारि॥
'कबीर' कहा गरबियौ, काल गहै कर केस।
ना जाणै कहाँ मारिसी, कै घरि कै परदेस॥
कहा कियौ हम आइ करि, कहा कहैंगे जाइ।
इत के भये न उत के, चाले मूल गंवाइ॥
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पहर-पहर पर नौबत बजा करती थी जिनके द्वार पर, और मस्त हाथी जहाँ बँधे हुए झूमते थे। वे अपने जीवन की बाजी हार गये। इसलिए कि उन्होंने हरि का नाम-स्मरण नहीं किया।
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कबीर कहते हैं -यह गर्व कैसा, जबकि काल ने तुम्हारी चोटी को पकड़ रखा हैं ? कौन जाने वह तुम्हें कहाँ और कब मार देगा ! पता नहीं कि तुम्हारे घर में ही, या कहीं परदेश में।
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हमने यहाँ आकर क्या किया ? और हरि के दरबार में जाकर क्या कहेंगे ? न तो यहाँ के हुए और न वहाँ के ही - दोनों ही ठौर बिगाड़ बैठे। मूल भी गवाँकर इस बाजार से अब हम बिदा ले रहे हैं।
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