बुधवार, 8 अप्रैल 2015

२३. आपुने भाव को अंग ~ ३


॥ श्री दादूदयालवे नमः॥ 
*सवैया ग्रन्थ(सुन्दर विलास)* 
साभार ~ @महंत बजरंगदास शास्त्री जी, 
पूर्व प्राचार्य - श्री दादू आचार्य संस्कृत महाविद्यालय(जयपुर) व 
राजकीय आचार्य संस्कृत महाविद्यालय(चिराणा, झुंझुनूं, राजस्थान) 
*२३. आपुने भाव को अंग* 
*नींच ऊंच बुरौ भलौ सुन दुर्जन पुनि,* 
*पंडित मूरख शत्रु मित्र रंक राव है ।* 
*मान अपमान पुण्य पाप सुख दुख दोऊ,* 
*स्वरग नरक बंध मोक्ष हू कौ चाव है ॥* 
*देवता असुर भूत प्रेत कीट कुंजर ऊ,* 
*पशु अरु पंखी स्वान सूकर बिलाव है ।* 
*सुन्दर कहत यह एकई अनेक रूप,* 
*जोई कछु देखिये सु आपुनौ ई भाव है ॥३॥* 
*समस्त दृश्यमान जगत् आत्मरूप* : इस संसार में उच्च नीच, भला, बुरा, सज्जन दुर्जन, पण्डित, मूर्ख, शत्रु मित्र, धनी निर्धन है । 
या मान अपमान, पुण्य पाप, सुख दुःख स्वर्ग, नरक, बन्ध मोक्ष की वासना । 
या देव असुर, भूत-प्रेत, कीड़ी, हाथी, पशु, पक्षी, कूकर, शूकर बिल्ली आदि जो कुछ है । 
*श्री सुन्दरदास जी* कहते हैं - यह एक(सर्वव्यापक परमात्मा) ही दिखायी दे रहा है । यह सब कुछ दृश्यमान जगत् आत्मभाव रूप ही है ॥३॥
(क्रमशः)

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