॥ श्री दादूदयालवे नमः॥
*सवैया ग्रन्थ(सुन्दर विलास)*
साभार ~ @महंत बजरंगदास शास्त्री जी,
पूर्व प्राचार्य - श्री दादू आचार्य संस्कृत महाविद्यालय(जयपुर) व
राजकीय आचार्य संस्कृत महाविद्यालय(चिराणा, झुंझुनूं, राजस्थान)
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*२३. आपुने भाव को अंग*
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*नींच ऊंच बुरौ भलौ सुन दुर्जन पुनि,*
*पंडित मूरख शत्रु मित्र रंक राव है ।*
*मान अपमान पुण्य पाप सुख दुख दोऊ,*
*स्वरग नरक बंध मोक्ष हू कौ चाव है ॥*
*देवता असुर भूत प्रेत कीट कुंजर ऊ,*
*पशु अरु पंखी स्वान सूकर बिलाव है ।*
*सुन्दर कहत यह एकई अनेक रूप,*
*जोई कछु देखिये सु आपुनौ ई भाव है ॥३॥*
*समस्त दृश्यमान जगत् आत्मरूप* : इस संसार में उच्च नीच, भला, बुरा, सज्जन दुर्जन, पण्डित, मूर्ख, शत्रु मित्र, धनी निर्धन है ।
या मान अपमान, पुण्य पाप, सुख दुःख स्वर्ग, नरक, बन्ध मोक्ष की वासना ।
या देव असुर, भूत-प्रेत, कीड़ी, हाथी, पशु, पक्षी, कूकर, शूकर बिल्ली आदि जो कुछ है ।
*श्री सुन्दरदास जी* कहते हैं - यह एक(सर्वव्यापक परमात्मा) ही दिखायी दे रहा है । यह सब कुछ दृश्यमान जगत् आत्मभाव रूप ही है ॥३॥
(क्रमशः)
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