॥ श्री दादूदयालवे नम: ॥
१८३. संत उपदेश । राज मृगांक ताल ~
संतों ! और कहो क्या कहिये ।
हम तुम्ह सीख इहै सतगुरु की, निकट राम के रहिये ॥ टेक ॥
हम तुम मांहि बसै सो स्वामी, सांचे सौं सचु लहिये ।
दर्शन परसन जुग जुग कीजे, काहे को दुख सहिये ॥ १ ॥
हम तुम संग निकट रहैं नेरे, हरि केवल कर गहिये ।
चरण कमल छाड़ि कर ऐसे, अनत काहे को बहिये ॥ २ ॥
हम तुम तारन तेज घन सुन्दर, नीके सौं निरबहिये ।
दादू देख और दुख सब ही, तामें तन क्यों दहिये ॥ ३ ॥
टीका ~ ब्रह्मऋषि सतगुरुदेव इसमें संत उपदेश कर रहे हैं कि हे संतों ! हम आपको और “क्या कहें ?” हमारे को और आपको, सत्य उपदेश के देने वाले, परमेश्वर रूप सतगुरु की यही शिक्षा है कि निर्गुण व्यापक राम के स्मरण में स्थिर रहना । हमारे में और आपमें जो चैतन्य परमेश्वर सत्य स्वरूप स्वामी वास करते हैं, उन्हीं को सत्यता से ग्रहण करिये । अन्तर्मुख वृत्ति द्वारा उनका आत्म - स्वरूप से दर्शन करके, उसी में अभेद होकर रहिये । और बहिरंग साधनों के क्लेश को क्यों उठाते हो ? हमारे और आपके हृदय में अत्यन्त समीप वह प्रभु, वास करते हैं । केवल उन हरि के चरणों की शरण ग्रहण करिये । ऐसे प्रभु के कमल रूप चरणों की शरण छोड़कर अन्य साधनों में क्यों भटकते हो ? हमको और आपको तारने वाले सुन्दर तेजोमय परमेश्वर ही सुखरूप हैं । उन्हीं के स्मरण द्वारा अपना निर्वाह करो । उनको छोड़कर और सब ही साधन दुःख रूप हैं, जिनमें अपने शरीर को क्यों जलाते हो ?
गलता तैं जे आईया, सांभर स्वामी पास ।
या पद तें उत्तर दियो, उठ गये होय उदास ॥ १८३ ॥
दृष्टान्त ~ गलता से चार वैरागी साधु दादूजी को अपनी संप्रदाय में मिलाने के लिये कंठी तिलक लेकर, सांभर झील में आये और महाराज को प्रणाम किया और कंठी तिलक सामने रख दिया । तब महाराज ने उपरोक्त शब्द से उन चारों साधुओं को उत्तर दिया । उनमें एक छीतरदास था, एक राम घटादास था, एक जंगीदास था । एक गैबीदास था, महाराज का उक्त उपदेश सुनकर उदास हो गये और उनमें से तीन नमस्कार करके चले गये । किन्तु छीतरदासजी दादूदयालजी के शिष्य हो गये और एक प्रसिद्ध सन्त कहलाये ।
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