गुरुवार, 2 अप्रैल 2015

*= प्रहलादजी आदि का मथुरा में मिलना =*

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*#श्रीदादूचरितामृत*, *"श्री दादू चरितामृत(भाग-१)"
लेखक ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज,
पुष्कर, राजस्थान ।*
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*नवम विन्दु*
*= प्रहलादजी आदि का मथुरा में मिलना =*
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भीमसिंहजी अपने उक्त सेवक के साथ शनैः शनैः मथुरा पहुंचे । वहां इनके पुरोहित प्रहलादजी इनका गया - श्राद्ध कराकर लौटे थे तथा और भी कुछ लोग उनके साथ यात्रा करने आये थे । प्रहलादजी ने इनको मथुरा में देखा तब उनको आश्चर्य हुआ । महाराजा का तो मैं गया - श्राद्ध करा कर यहां लौटा हूँ और महाराज तो ये जीवित हैं ।
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फिर प्रहलादजी ने सोचा कोई और ही होंगे, कभी - कभी एक समान आकृति मिल भी जाती है । किंतु इनसे बात तो करनी चाहिये । प्रहलादजी भीमसिंहजी के पास आये, तब भीमसिंहजी ने प्रणाम किया । फिर पूछा - आप यहां कैसे पधारे हैं ? यात्रा करने ही आये हैं या और कोई कार्य वश आये हैं ?
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तब प्रहलादजी का कंठ रुक गया, वे बोल न सके और उनके नेत्रों से अश्रु भी टपकने लगे । भीमसिंहजी ने पूछा - गुरुजी ऐसी क्या बात है ? जो आपकी ऐसी स्थिति हो गई है । प्रहलादजी बोले महाराज क्या कहूं कहा नहीं जाता है । भीमसिंहजी ने कहा कहना तो पड़ेहीगा, क्यों संकोच करते हो कह दो ।
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प्रहलादजी बोले - महाराज हमको आपकी वीरगति का समाचार मिला था । इससे महाराणी आपकी कुल परम्परा के अनुसार सती हो गई है और मैं आपका गया - श्राद्ध करा कर लौटा हूँ । यहां आते ही आपका दर्शन हुआ है । इससे मुझे हर्ष और दुःख दोनों ने घेर लिया है । हर्ष तो आपके मिलने का है । दुःख महाराणी के सती होने का है ।
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भीमसिंहजी ने कहा - अच्छा, जो हरि इच्छा होती है वही होता है । जितने दिन संस्कार था उतने दिन संयोग रहा, फिर वियोग तो होना ही था । दोनों में से एक तो जाता ही है । आप क्यों दुःखी होते हैं । प्रहलादजी ने कहा - ठीक है महाराज जो होना था सो तो हो गया, अब आप राजधानी को पधारें । घर पर चलकर सबको हर्षित करें ।
(क्रमशः)

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