गुरुवार, 2 अप्रैल 2015

॥ श्री दादूदयालवे नम: ॥
१७६. परस्पर गोष्ठी परिचय विनती । तिलवाड़ा ताल ~
गोविन्द राखो अपणी ओट ।
काम क्रोध भये बटपारे, तकि मारैं उर चोट ॥ टेक ॥ 
बैरी पंच सबल संग मेरे, मारग रोक रहे ।
काल अहेडी बधिक ह्वै लागे, ज्यूं जीव बाज गहे ॥ १ ॥ 
ग्यान ध्यान हिरदै हरि लीना, संग ही घेर रहे ।
समझि न परई बाप रमैया, तुम्ह बिन शूल सहे ॥ २ ॥ 
शरण तुम्हारी राखो गोविन्द, इन सौं संग न दीजे ।
इनके संग बहुत दुख पाया, दादू को गहि लीजे ॥ ३ ॥
टीका ~ ब्रह्मऋषि सतगुरुदेव इसमें परमेश्‍वर की शरण बता रहे हैं । अपने को उपलक्ष करके कह रहे हैं कि हे गोविन्द ! हमको अब आप अपने चरणों की ओट में रखिये । ये काम, क्रोध, लोभ, मोह आदि लुटेरे हमारे हृदय में मौका पाकर चोट मारते हैं और पंच ज्ञानेन्द्रिय रूपी शत्रु, ये सब बड़े बलवान् रात दिन हमारे साथ ही रहते हैं । आपकी प्राप्ति के मार्ग में हर समय रुकावट डालते रहते हैं । और काल मानो बाण लेकर बधिक रूप से हमारे पीछे, हमारी शिकार करने को पड़ रहा है । जैसे पक्षियों को बाज पकड़ता है, ऐसे हमारे सिर पर ही काल रूपी बाज घूमता रहता है । हे हरि ! हमारे अन्तःकरण से आपके ज्ञान - ध्यान को हर रहा है । अपने संग हर समय हमको घेर रखा है । हे पिता ! हे राम ! हमारी समझ में आप हमको अपनी शरण में रखिये, इनका साथ हमको मत देना । इनके साथ हमने जन्म - जन्मान्तरों में दुख पाया है । अब तो हमको आप अपनी शरण में ग्रहण कर लो ।



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