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*#श्रीदादूचरितामृत*, *"श्री दादू चरितामृत(भाग-१)"
लेखक ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज,
पुष्कर, राजस्थान ।*
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*= दशम विन्दु =*
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*= शिष्य जग्गाजी =*
एक दिन साँभर में एक गुजराती सज्जन आये । उनका नाम जगिया भाई था । वे अपनी पत्नी की प्रेरणा से धन प्राप्ति के लिये भ्रमण कर रहे थे । जब उनको कहीं भी विशेषरूप से धन नहीं मिला तब उन्होंने निश्चय किया - साँभर से लवण खरीदकर देश को चले, इससे कुछ तो प्राप्त होगा ही ।
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वे साँभर में आये तब उन्होंने सुना - यहां दादू नाम के एक गुजराती संत हैं, वे बड़े सिद्ध पुरुष हैं । जगिया भाई ने अपने मन में सोचा यदि दादूजी सिद्ध पुरुष हैं तब तो मुझे धन भी दे सकते हैं, मुझे उनके पास अवश्य चलना चाहिये । फिर वे दादूजी के आश्रम में गये । दादूजी का दर्शन कर के नमो नारायण बोलते हुये दादूजी के चरणों में मस्तक रखकर प्रणाम कर के सामने बैठ गये ।
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फिर अपनी कथा सुनाकर बोले - स्वामिन् ! मुझे धन की अभिलाषा है, आप सिद्ध पुरुष हैं, अतः मेरी आशा पूर्ण कर दीजिये । यदि मैं बिना धन घर को जाऊंगा तो मेरी स्त्री क्रोधित होकर मुझे बहुत सी गालियाँ देगी । वह मुझे बहुत दुःख देती है । जगिया भाई की उक्त बातें सुनकर दादूजी बोले -
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"बार हि बार कहूं रे गहिला, राम नाम कांई विसार्यो रे ।
जन्म अमोलक पामिय१ एह्वो२ रतन कांई हार्यो रे ॥टेक॥
विषया बाह्यो३ नैं तहँ धायो, कीधो नंहिं४ म्हारो वार्यो५ रे ।
माया धन जोई नैं भूल्यो, सर्वस येणे६ हार्यो रे ॥१॥
गर्भवास देह दमतो७ प्राणी, आश्रम तह सँभार्यो रे ।
दादू रे जन राम भणीजे, नहिं तो यथा विधि हार्यो रे ॥२॥"
अर्थ - अरे अनसमझ ! मैं तुझे बार बार कहता हूँ, तू राम नाम का चिन्तन करना क्यों भूला है ? यह अमूल्य मानव जन्म तुझे प्राप्त१ हुआ है, ऐसा२ रत्न विषयों में क्यों खो रहा है ? विषयों से बहक३ करके जहां विषय प्राप्त हों वहीं ही दौड़ता है । मैंने जिनको त्यागने५ के लिये कहा वे कामादि तो नहीं त्यागे, मेरा कहना नहीं किया४ । मायिक कनकादि धनों को देखकर प्रभु को भूल रहा है ।
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इस६ व्यवहार से तू अपना सर्वस्व खो रहा है । हे प्राणी ! गर्भवास में तेरा सूक्ष्म देह बार बार अति कष्ट७ पाता रहा है । गर्भवास रूप आश्रम में तूने उस प्रभु को स्मरण किया था, अब फिर भूल गया है । अरे जन ! राम नाम चिन्तन तथा उच्चारण कर, नहीं करने से तो जैसी विधि से तू चल रहा है, ऐसे तो अपने जन्म को व्यर्थ ही खो रहा है ।
(क्रमशः)
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