गुरुवार, 9 अप्रैल 2015

२३. आपुने भाव को अंग ~ ४


#daduji
॥ श्री दादूदयालवे नमः॥
*सवैया ग्रन्थ(सुन्दर विलास)*
साभार ~ @महंत बजरंगदास शास्त्री जी,
पूर्व प्राचार्य - श्री दादू आचार्य संस्कृत महाविद्यालय(जयपुर) व
राजकीय आचार्य संस्कृत महाविद्यालय(चिराणा, झुंझुनूं, राजस्थान)
*२३. आपुने भाव को अंग*
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*याहि कै जागत काम याही कै जागत क्रोध,*
*याही कै जागत लोभ याही मोह मातौ है ।*
*याकौ याही बैरी होत याकौ याही मित्र होत,* 
*याकौ याही सुख देत याही दुख दातौ है ॥* 
*याही ब्रह्मा याही रूद्र याही बिष्णु देखियत,* 
*याही देव दैत्य यक्ष सकल संघातौ है ।* 
*याहि कौ प्रभाव सु तौ याही कौं दिखाइ देत,* 
*सुन्दर कहत याही आतमा बिख्यातौ है ॥४॥* 
इस आत्मा को ही काम जाग्रत् होता है, इसी को क्रोध आता है ! इसी को लोभ जाग्रत होता है, इसी को मोह सताता है । 
इसका यह स्वयं वैरी बनता है, स्वयं ही मित्र बनता है१ । 
(१.आत्मैव ह्यात्मनो बन्धुरात्मैव रिपुरात्पन: ॥५॥ 
बन्धुरात्मात्मनस्तस्य येनात्मैवात्मना जितः । 
अनात्मनस्तु शत्रुत्वे, वर्तेतात्मैव शत्रुवत् ॥६॥ - श्रीमदभगवत् गीता अ. ६ ।) इसको सुख देने वाला भी यही है, एवं दुःख देने वाल भी यही है ।
यही ब्रह्म है, यही रूद्र है, यही विष्णु दिखायी पड़ता है । यही दैव, दैत्य, यक्ष आदि सब समूहों में है । 
इसके प्रभाव से यही दिखायी देता है । *श्री सुन्दरदास जी* कहते हैं - तुम्हे इस एक सर्वव्यापक आत्मा के रूप ही सब दिखायी दे रहे हैं ॥ 
(क्रमशः)

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