॥ श्री दादूदयालवे नम: ॥
१७५. परिचय विनती । जय मंगल ताल ~
शरण तुम्हारी केशवा, मैं अनन्त सुख पाया ।
भाग बड़े तूँ भेटिया, हौं चरणौं आया ॥ टेक ॥
मेरी तप्त मिटी तुम्ह देखतां, शीतल भयो भारी ।
भव बंधन मुक्ता भया, जब मिल्या मुरारी ॥ १ ॥
भरम भेद सब भूलिया, चेतन चित लाया ।
पारस सौं परचा भया, उन सहज लखाया ॥ २ ॥
मेरा चंचल चित निश्चल भया, अब अनत न जाई ।
मगन भया सर बेधिया, रस पीया अघाई ॥ ३ ॥
सन्मुख ह्वै तैं सुख दिया, यहु दया तुम्हारी ।
दादू दरसन पावई, पीव प्राण अधारी ॥ ४ ॥
टीका ~ ब्रह्मऋषि सतगुरु इसमें परमेश्वर से परिचय विनती कर रहे हैं कि हे केशव ! मैं आपकी शरण में आकर, जब से आपके दर्शन किये । तब से मैं अत्यन्त सुखी हो रहा हूँ । जिस सुख का कभी अन्त नहीं होता, उस सुख को प्राप्त कर लिया है । हे नाथ ! मेरा आज बड़ा भाग्य उदय हुआ है, जो आपके दर्शन किये । अब मैं आपके चरणों में समा रहा हूँ । मेरे हृदय में सम्पूर्ण विरह की ताप शान्त हो गई । आपके दर्शन पाते ही, मैं अक्षय शान्ति को प्राप्त हो रहा हूँ । हे मुरारी ! जब आपसे हम मिले, तभी से संसार के जन्म - मरण रूपी, हमारे सम्पूर्ण बन्धन कट गये हैं । पांच प्रकार के भ्रम और पांच प्रकार के भेद को हम भूल गये हैं और अपने चित्त को आप समष्टि चेतन में लगाकर, हम एक रूप हो रहे हैं । हे नाथ ! पारसरूप ब्रह्मवेत्ता गुरुदेव से जब हम मिले, तब उन्होंने हमको आपका आत्म - स्वरूप करके ही बताया है । तभी से हमारा चंचल चित्त, आपके निश्चल आत्म - स्वरूप में स्थिर हो रहा है ।
अब आपको छोड़कर अन्यत्र वासना द्वारा संसार में नहीं जाता है । जब से हमारा मन, गुरु उपदेश रूपी बाण से बिंध गया है, तब से जीव ब्रह्म की एकता रूपी रस को तृप्त होकर पी रहा है । हे नाथ ! आपने हमारे को सन्मुख आकर दर्शन दिये, यह आपकी हम पर पूर्ण कृपा है । हे प्राणधार ! हे मुख - प्रीति के विषय परमेश्वर ! आपकी दया से ही आपके विरहीजन भक्तों को आपका दर्शन प्राप्त होता है ।
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