॥ श्री दादूदयालवे नमः॥
*सवैया ग्रन्थ(सुन्दर विलास)*
साभार ~ @महंत बजरंगदास शास्त्री जी,
पूर्व प्राचार्य - श्री दादू आचार्य संस्कृत महाविद्यालय(जयपुर) व
राजकीय आचार्य संस्कृत महाविद्यालय(चिराणा, झुंझुनूं, राजस्थान)
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*२२. विपर्यय को अंग*
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*नष्ट होहिं द्विज भ्रष्ट क्रिया करि,*
*कष्ट किये नहिं पावै ठौर ।*
*महिमा सकल गई तिनि केरी,*
*रहत पगन तर सब सिरमौर ॥*
*जित तित फिरहिं नहीं कछु आदर,*
*तिनकौं कोउन घालै कौर ।*
*सुन्दरदास कहै समुझावै,*
*ऐसी कोउ करौ मति और ॥३१॥*
*नष्ट होहिं द्विज भ्रष्ट क्रिया करि* : कुछ तथाकथित द्विज(ब्राह्मण या जीव) सांसारिक भोगविलास रूप भ्रष्ट कियाओं में लगे रहकर या दुष्कर तपश्चर्या में रत रह कर अपने जीवन की सार्थकता नष्ट करते रहते हैं । तब उन्हें कोई शरणस्थल(निर्गुण पद) भी नहीं मिल पाता ।
*महिमा सकल गई तिनि केरी* : इस कारण, उनकी सामाजिक प्रतिष्ठा भी नष्ट हो आती है । पहले वे समाज में सर्वोच्च पूजा - स्थान में बैठे थे; परन्तु आज इन भ्रष्ट क्रियाओं के कारण, सबके पैरों में गिरते पड़ते रहते हैं ।
*जित तित फिरहिं नहीं कछु आदर* : वे जहाँ कहीं भी इधर उधर जाते हैं, उन को कोई आदर नहीं करता; उन को कोई रोटी का टुकड़ा भी नहीं पूछता ।
*सुन्दरदास कहै समुझावै* : अतः *श्री सुन्दरदास जी* दूसरों को यही सदुपदेश देते हैं कि इन उपर्युक्त ब्राह्मणों के समान कभी अपने विचार भ्रष्ट न बन बैठना ॥३१॥
(क्रमशः)
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