गुरुवार, 30 अप्रैल 2015

२४. स्वरूप बिस्मरण को अंग ~ १३


#daduji
॥ श्री दादूदयालवे नमः॥ 
*सवैया ग्रन्थ(सुन्दर विलास)* 
साभार ~ @महंत बजरंगदास शास्त्री जी, 
पूर्व प्राचार्य - श्री दादू आचार्य संस्कृत महाविद्यालय(जयपुर) व 
राजकीय आचार्य संस्कृत महाविद्यालय(चिराणा, झुंझुनूं, राजस्थान) 
*२४. स्वरूप बिस्मरण को अंग* 
*जैसैं कोऊ सुपनैं मैं कहै मैं तौ ऊंट भयौ,* 
*जागि करि देखै उहै मनुष्य स्वरूप है ।* 
*जैसैं कोऊ राजा पनि सोई कै भिखारी होइ,* 
*आंखि उधरे तैं महा भूपति कौ भूप है ॥* 
*जैसैं कोऊ भ्रम ही तैं कहै मेरौ सिर कहां,* 
*भ्रम के गये तैं जांनै सिर तो तद्रूप है ।*
*तैसैं हि सुन्दर यह भ्रम करि भूलौ आप,* 
*भ्रम कै गयै तैं यह आतमा अनूप है ॥१३॥* 
जैसे कोई स्वप्न में स्वयं को ऊँट बना देख कर जागने पर कहने लगे मैं तो अब ऊँट हो गया हूँ । परन्तु रहता है वह मनुष्य ही । 
या, कोई राजा स्वप्न में अपने को भिखारी बना देख कर स्वयं मानने लगे, जब कि है वह अभी राजा ही । 
या किसी को, किसी कारण वश, भ्रम हो जाय कि उसका शिर नहीं रहा, जब कि भ्रम मिट जाने पर उसका शिर यथास्थान मिल जाता है । 
*श्री सुन्दरदास जी* कहते हैं - इसी प्रकार यह आत्मा भ्रम के चक्र में फँस कर आत्मस्वरूप को भूल जाता है, तथा भ्रमनिवृत होने पर पुनः स्वयं को उसी अनुपम आत्मरूप में जान लेता है ॥१३॥ 
(क्रमशः)

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