शनिवार, 4 अप्रैल 2015


॥ श्री दादूदयालवे नम: ॥
१७८ ( गुजराती ) विनती । त्रिताल ~
भक्ति मांगूं बाप भक्ति मांगूं, मूने ताहरा नांऊं नों प्रेम लाग्यो ।
शिवपुर ब्रह्मपुर सर्व सौं कीजिये, अमर थावा नहीं लोक मांगूं ॥ टेक ॥
आप अवलंबन ताहरा अंगनों, भक्ति सजीवनी रंग राचूं ।
देहनें गेहनों बास बैकुंठ तणौं, इन्द्र आसण नहीं मुक्ति जाचूं ॥ १ ॥
भक्ति वाहली खरी, आप अविचल हरि, निर्मलो नाउं रस पान भावे ।
सिद्धि नें रिद्धि नें राज रूड़ो नहीं, देव पद माहरे काज न आवे ॥ २ ॥
आत्मा अंतर सदा निरंतर, ताहरी बापजी भक्ति दीजे ।
कहै दादू हिवे कौड़ी दत आपे, तुम्ह बिना ते अम्हें नहीं लीजे ॥ ३ ॥
टीका ~ ब्रह्मऋषि सतगुरुदेव इसमें अनन्य भक्ति की याचना कर रहे हैं कि हे परमपिता परमेश्वर ! हम तो अब आपकी अनन्य भक्ति आपसे मांगते हैं, जिससे आपके नाम - स्मरण का हमारे अन्तःकरण में प्रेम लगे । हे नाथ ! शिवपुरी, कैलास, ब्रह्मलोक, इन सबसे मुझे क्या लेना है और अमर होकर हम क्या करेंगे ? और स्वर्ग आदि लोकों में भी जाकर क्या करेंगे ? आप दया करके आपके स्वरूप को प्राप्त कराने वाली आपकी अनन्य भक्ति हमको दीजिये । आपकी इस निष्काम भक्ति रूप रंग में ही हमारा मन सप्रेम लगे, क्योंकि इस अनन्य भक्ति द्वारा हम आप सजीवन स्वरूप को प्राप्त होवेंगे । न हमें देह प्राप्त करके घर में रहने की या बैकुण्ठ में बसने की ही इच्छा है, न इन्द्रासन की ही इच्छा है । न हम आपसे चार प्रकार की मुक्ति ही मांगते हैं । हे परमेश्वर ! आपकी प्यारी भक्ति ही हमें खरी सच्ची लगती है । हे हरि ! जैसे आप अविचल हो, ऐसा ही आपका निष्काम नाम - स्मरण रूपी रस हमको प्रिय लगता है । न हमें सिद्धियों की इच्छा है, न रिद्धियों की, न राज - पद की ही इच्छा है और देव - पद प्राप्त करने से हमें क्या मतलब है ? हे बाप जी ! हमारे अन्तःकरण में आप अपनी अनन्य भक्ति दीजिये । हे प्रभु ! हमें अब आप चाहे, करोड़ों का धन दें, वह भी हम आपके बिना नहीं लेंगे ।

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