रविवार, 5 अप्रैल 2015

॥ श्री दादूदयालवे नम: ॥
१७९.(गुजराती) राज विद्याधर ताल ~
एह्वो एक तूँ राम जी नाम रूड़ो । 
ताहरा नाम बिना बीजो सबै ही कूड़ो ॥ टेक ॥ 
तुम्ह बिन अवर कोई कलि मां नहीं, सुमरतां संत नें साद आपे ।
कर्म कीधा कोटि छोड़वे बाँधो, नाम लेतां खिणत ही ये कापे ॥ १ ॥ 
संत नें सांकड़ो दुष्ट पीड़ा करे, वाहरे वाहलो वेगि आवे ।
पापनां पुंज पह्वां करी लीधो, भाजिया भै भर्म जोनि न आवे ॥ २ ॥ 
साधनें दुहेलो तहाँ तूँ आकुलो, माहरो माहरो करीनें धाए ।
दुष्ट नें मारिबा संत नें तारिबा, प्रकट थावा तहाँ आप जाए ॥ ३ ॥ 
नाम लेतां खिण नाथ तें एकले, कोटिनां कर्मनां छेद कीधा ।
कहै दादू हिवें तुम्ह बिना को नहीं, साखी बोलें जे शरण लीधा ॥ ४ ॥ 
टीका ~ ब्रह्मऋषि सतगुरुदेव इसमें अनन्य भाव कह रहे हैं कि हे राम जी ! ‘एह्वो’ = जैसे, आप अखण्ड अद्वितीय स्वरूप हैं, ऐसे आपका नाम - स्मरण भी, हमको ‘रूड़ो’ = अति उत्तम, लगता है । आपके नाम बिना और सब ‘कूड़ो’ = मिथ्या है । स्मरण करने से संत को ‘साद आपै’ = आनन्द देने वाला, ऐसा आपके नाम बिना इस कलयुग में और कोई नहीं है । पूर्व किये हुए करोड़ों प्रकार के कर्म - बन्धनों से बंधे हुए प्राणी को, “खिणतही” = एक क्षण में आपका नाम - स्मरण, कर्म - बन्धन को काट देता है । दुष्ट जब संतों को सताते हैं, तब आप अपने संतों के, ‘वाहलो’ = प्यारे, शीघ्र ही संत की ‘वाहरे’ = सहायता के लिये, संत के पास आते हो । जिस संत ने नाम - स्मरण द्वारा, सम्पूर्ण पाप को दूर करके, आपके स्वरूप का ज्ञान, लीधो = प्राप्त किया है, उनका भेदजन्य भय, भ्रम, अन्तःकरण से दूर हो गया है । वह फिर ज्ञान द्वारा मुक्त हो जाते हैं । जन्म मरण में नहीं जाते । ऐसे संतों को जब दुःख होता है, तब आप आतुरता से व्याकुल होकर, “मेरा है, मेरा है” ऐसे करते हुए उसकी रक्षा के लिये वह जहाँ भी होता है, वहीं आप दौड़कर जाते हो और फिर वहाँ प्रगट होकर, दुष्ट को मारकर संत को तारते हो । 
हे नाथ ! फिर आपका नाम - स्मरण करते ही आप अकेले ही, अपने भक्तों के करोड़ों कर्मों को काटते हो । आपके बिना, अब हमारा और कोई भी आश्रय नहीं है, क्योंकि जिन संतों ने आपकी शरण ली है अथवा जिन संतों को आपने अपनी शरण में लिया हैं, वे आपकी महिमा की ऐसी ही गवाही देते हैं ।

“परित्राणाय साधूनां, विनाशाय च दुष्कृताम् । 
धर्मसंस्थापनार्थाय संभवामि युगे युगे ॥ - गीता

साधुओं की रक्षा के लिये, दुष्टों के विनाश के लिये और धर्म की स्थापना के लिये प्रतियुग में भगवान् अवतार लेते हैं ।

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