रविवार, 5 अप्रैल 2015

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#daduji
卐 सत्यराम सा 卐
दादू सुध बुध आत्मा, सतगुरु परसे आइ ।
दादू भृंगी कीट ज्यों, देखत ही ह्वै जाइ ॥१४२॥
टीका ~ छल कपट से रहित जो निष्कामी और निष्पापी जिज्ञासु हैं, वे प्रभु कृपा से सतगुरु का साथ करके बाह्य विषयों से उदासीन होकर आत्म - स्वरूप में संलग्न हो जाते हैं । अब उदाहरण देकर इस भाव को स्पष्ट दिखाते हैं कि जैसे पीली लट भृंग से मिलकर, उसका शब्द सुन करके, उसी का ध्यान करके भृंगी रूप हो जाती है, वैसे ही वरिष्ठ सतगुरु के दर्शन मात्र से ही उत्तम जिज्ञासु सतगुरु की तरह ब्रह्मरूप हो जाते हैं ।
कृपा करैं गुरुदेव यदि, क्षण में हो साक्षात् ।
मुकुन्द ने करवा दिया, जयन्त को विख्यात ॥
दृष्टांत :- नरसिंह के पुत्र राजा जयन्तपाल अपने राज्य में आने वाले विद्वान् साधुओं को अपनी सभा में बुलाकर यह प्रश्न करते कि आप तो ब्रह्मज्ञान की बात करते हो ? क्या आपने ब्रह्म का साक्षात्कार किया है ? और किया है तो क्या आप मुझे साक्षात्कार करा सकते हो ? परन्तु केवल शब्द - ज्ञानी इसका क्या उत्तर देते ! ऐसे ज्ञानियों को वह कारागार में बन्द करवा देता । करीब 600 साधु, ब्राह्मण, राजा के कारागृह में थे । श्री रघुनाथ के शिष्य मुकुन्दराज उन्हें छुड़वाने की इच्छा करके जयन्तपाल के पास गए । उनसे भी राजा ने वही प्रश्न किया । मुकन्दराज ने कहा, "आप जहाँ कहो, साक्षात्कार करा दूँ ।'’ यह कहकर, एक घोड़ा मंगाया और राजा से कहा, "इस पर चढ़ो ।'' राजा ने जब पायड़े में पैर रखा और घोड़े पर चढ़ा, तो मुकुन्दराज ने राजा के सिर पर हाथ रखा तो घोड़े के ऊपर ही राजा की समाधि लग गई । तीन दिन और तीन रात घोड़े पर ही सवार रहा । समाधि खुलते ही राजा, मुकुन्दराज का ही शिष्य हो गया और साधु ब्राह्मणों को सम्मानपूर्वक विदा किया ।
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दादू भृंगी कीट ज्यूं, सतगुरु सेती होइ ।
आप सरीखे कर लिये, दूजा नाहीं कोइ ॥१४३॥
टीका ~ कीट रूपी उत्तम जिज्ञासु, भृंग रूपी ब्रह्मवेत्ता सतगुरु के मिलते ही तत्वस्वरूप हो जाते हैं । दृष्टांत में यह है कि जैसे भृंग लट को अनेक दु:खों से छुड़ा करके अपने समान आकाशगामी पक्षी बना लेता है, उसी प्रकार संसार दु:खों से मुक्त करके सतगुरु भी जीव को आत्मपरायण बनाते हैं । इसी से सच्चे गुरु के समान परमार्थ कोई भी नहीं है । अथवा जब सतगुरु ने शिष्य को अपने समान किया तो शिष्य की दृष्टि में अपने एक आत्मा से अन्य दूसरा कोई भी नहीं है, सर्वत्र परमात्मा का ही साक्षात्कार करता है ।
ज्यों लट भृंग करै, अपने सम, तास सूं भिन्न कहै नहीं कोई ।
ज्यूं द्रुम और अनेक न भाँतिन चंदन के ढिग चन्दन होई ।
ज्यूं जल क्षुद्र मिले जब गंगहि, होइ पवित्र वहै जल सोई ।
सुन्दर जाति स्वभाव मिटे सब, साधु की संगति साधु ही होई ॥

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