२०६. परिचय उपदेश । त्रिताल ~
सहज सहेलड़ी हे, तूँ निर्मल नैन निहारि ।
रूप अरूप निर्गुण आगुण में, त्रिभुवन देव मुरारि ॥ टेक ॥
बारम्बार निरख जग जीवन, इहि घर हरि अविनाशी ।
सुन्दरी जाइ सेज सुख विलसे, पूरण परम निवासी ॥ १ ॥
सहजैं संग परस जगजीवन, आसण अमर अकेला ।
सुन्दरी जाइ सेज सुख सोवै, जीव ब्रह्म का मेला ॥ २ ॥
मिलि आनन्द प्रीति करि पावन, अगम निगम जहँ राजा ।
जाइ तहाँ परस पावन को, सुन्दरी सारे काजा ॥ ३ ॥
मंगलाचार चहुँ दिशि रोपै, जब सुन्दरी पिव पावै ।
परम ज्योति पूरे सौं मिल कर, दादू रंग लगावै ॥ ४ ॥
टीका ~ ब्रह्मऋषि सतगुरुदेव इसमें परिचय उपदेश कर रहे हैं कि हे हमारी बुद्धि वृत्ति रूप सहेली ! तूँ शुद्ध अन्तःकरण में ज्ञान रूप नेत्रों से, सगुण स्वरूप और निर्गुण को, ‘आगुण’ में कहिए सभी गुणरूप पदार्थों में, उस मुरारि देव को देख । वही जगत् के जीवन रूप हैं । पुन - पुनः उन्हीं को विचार - विचार कर देख । वे अविनाशी हरि इस मनुष्य देह रूपी घर में ही प्राप्त होने योग्य हैं । सुरति रूपी सुन्दरी बहिर्मुख से अन्तर्मुख होकर हृदय रूपी सेज पर परमेश्वर के साथ अभेद निश्चय रूप सुख का उपभोग करती है । वह पूर्ण ब्रह्म के साथ सदैव निवास करती है । फिर अनायास ही जग - जीवन प्रभु के संग होकर उनके स्पर्श द्वारा अद्वैत स्वरूप अमर आसन को प्राप्त करती है । ऐसे जब वृत्ति रूप सुन्दरी, अद्वैत अमर ब्रह्म की शय्या पर जाकर ब्रह्मानन्द रूप निद्रा में शयन करती है, उस अवस्था में जीव ब्रह्म एकरूप होते हैं । ‘अगम’ = शास्त्र और ‘निगम’ = वेद, से भी आगे प्रभु सुशोभित हो रहे हैं, वहाँ ही शुद्ध प्रीति द्वारा प्रभु से मिलकर आनन्द ले । वहाँ शुद्ध हृदय में जाकर वृत्ति रूप सुन्दरी, प्रभु के शुद्ध स्वरूप का स्पर्श करती है । वही संत आत्मा रूप सुन्दरी, अपने कार्य को पूरा कर लेती है, तब चतुष्टय अन्तःकरण में मंगलाचार होने लगता है । इस प्रकार जब सुन्दरी मुख - प्रीति का विषय परमेश्वर को प्राप्त करती है, तब उस परम श्रेष्ठ ज्योति स्वरूप से मिलकर, अभेद होकर, फिर उत्तम जिज्ञासुओं के भी वही रंग लगाती है ।(यहाँ ‘आगुण’ का अर्थ औगुण नहीं, बल्कि निर्गुण का विलोम सगुण है । गुण के पूर्व आ उपसर्ग है ।)
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