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*#श्रीदादूचरितामृत*, *"श्री दादू चरितामृत(भाग-१)"*
लेखक ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज,
पुष्कर, राजस्थान ।*
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*~ त्रयोदश बिंदु ~*
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*शिष्य बड़े बोहितदास(२) -*
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*कुछ उस परब्रह्म के स्वरूप-भूत नाम भी हैं -*
जैसे सत्य, चित्, आनन्द, ब्रह्म, निरंजन, निराकार इत्यादिक किन्तु ये सब स्वरूप से भिन्न गुण तथा कर्मों द्वारा नहीं बने हैं । अतः उक्त नामों के भिन्न होने पर भी वह परब्रह्म भिन्न नहीं हो सकता है । उक्त नाम निज स्वरूप के बोधक ही होते हैं । गुणज और कर्मज नाम ही भिन्नता सिद्ध करा सकते हैं किन्तु अवतार बाद मानने वालों के लिए गुणज कर्मज नामों से भी भिन्नता सिद्ध नहीं होती ।
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वे अवतार ईश्वर का ही मानते हैं । इससे अवतार ईश्वर रूप ही होते हैं । अतः शुद्ध ब्रह्म नाम रूप रहित है । नाम तथा रूप दोनों ही माया है मय है । शुद्ध ब्रह्म माया रहित निरंजन है । जो मत मतान्तरों की पक्ष को त्याग कर उस परब्रह्म को विचार द्वारा खोज कर प्राप्त करता है, मैं तो उसी संत की बलिहारी जाता हूं । तुम भी ऐसा ही करो तो तुम्हें भी शांति मिलेगी ।
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"साँचा सांई शोध कर, साँचा राखी भाव ।
दादू साँचा नाम ले, साँचे मारग आव ॥"
तुम संतों के संग द्वारा सत्य परब्रह्म की खोज करके, उसमें सच्चा प्रेम रखते हुये गुण, कर्म, स्वभाव से रहित उस परब्रह्म का सच्चा(निज) नाम उच्चारण करते हुये उस परब्रह्म की प्राप्ति के सच्चे मार्ग में आओ ।
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"जामे मरे सो जीव है, रमता राम न होय ।
जामण मरण से रहित है, मेरा साहिब सोय ॥"
दादूजी महाराज के उक्त उत्तर रूप उपदेश को सुनने से बोहितजी की शंका का उचित समाधान हो गया । बोहितजी को अति आनन्द की प्राप्ति हुई ।
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उनका शंकाजन्य सर्व विक्षेप मिट गया । फिर वे दादूजी महाराज के शिष्य हो गये । ये दादू जी के सौ शिष्यों में हैं । उक्त प्रकार आमेर में दादूजी महाराज के अनेक साधक आते रहते थे और दादूजी के उपदेशों से परमसुख को प्राप्त होते थे ।
(क्रमशः)
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