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*#श्रीदादूचरितामृत*, *"श्री दादू चरितामृत(भाग-१)"*
लेखक ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ।*
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*~ १६ वां विन्दु ~*
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*शिष्य तेजानन्द(२) -*
तेजानन्दजी अपने परिवार के सहित गुजरात से राजस्थान में जोधपुर होकर आये । जोधपुर के पास गोहा की पहाड़ी को देखकर के इनके मन में संकल्प हुआ था - "यह पहाडी अच्छी है, यहाँ ही बैठ कर भजन करना चाहिये ।" फिर ये सब आमेर दादूजी के पास पहुँचे ।
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इनकी पत्नी, एक पुत्री, दो पुत्र और एक आप, ये पांच व्यक्ति परिवार में थे । सब दादूजी के आश्रम में गये । दादूजी का दर्शन करके सबने प्रणाम किया और हाथ जोड़ कर सब सामने बैठ गये । दादूजी के दर्शन से इस परिवार को महान् आनन्द प्राप्त हुआ । दादूजी ने पूछा आप लोग कहाँ से आये हैं और क्यों आये हैं ?
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तेजानन्दजी ने कहा - गुजरात के काठियावाड़ प्रदेश से हम आये हैं और आपके पद - "इनमें क्या लीजे क्या दीजे ।" बणजारोंसे सुनकर आपसे दीक्षा लेने आये हैं । आप कृपा करके हम सबको अपने शिष्य बनाकर अपनी साधन पद्धति बताकर हमारा जन्मादि संसार दुःखों से उद्धार करिये । इसलिये हम लोग आपकी शरण में आये हैं । उनकी उक्त प्रार्थना सुनकर दादूजी ने उनको इस पद से उपदेश किया -
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"भाई रे तेन्हौं रुड़ो थाये, जे गुरु मुख मारग जाये ॥टेक॥
कुसंगति परिहरिये, सत्संगति अणसरिये ॥१॥
काम क्रोध नहिं आणैं, वाणी ब्रह्म बखाणैं ॥२॥
विषया थैं मन बारे, ते आपणपो तारे ॥३॥
विष मूकी१ अमृत लीधो, दादू रुड़ौ२ कीधो ॥४॥
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हे भाई ! जो गुरु-आज्ञानुसार साधन करता है, उसी का कल्याण होता है । अतः कुसंगति को त्यागकर सत्संग में रहते हुये काम क्रोधादि को हृदय में स्थान न देकर, ब्रह्म सम्बंन्धी वाणी बोलते हैं और विषयों से मन को दूर रखते हैं, वे अपने को संसार में तार लेते हैं । तुमने विषय-विष को त्याग१ कर के भगवद् नामामृत का पान किया है, यह बहुत अच्छा२ किया है ।
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उक्त पद से उपदेश देकर दादूजी ने उनको दीक्षा दे दी । ये परिवार के पाँचों ही भक्त थे और सदा प्रभु के गुण गाते रहते थे । एक वर्ष आमेर में रहकर इस परिवार ने दादूजी से सत्संग किया । फिर अपने पुत्र सहजानन्द को गरीबदासजी का शिष्य बना दिया । पश्चात् दादूजी की आज्ञा लेकर जोधपुर के पास गोहा की पहाड़ी पर जाकर भजन करने लगे और उच्च कोटि के संत हो गये ।
(क्रमशः)
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