शुक्रवार, 31 जुलाई 2015

#‎daduji‬
॥ श्री दादूदयालवे नम: ॥
२९६. मंगलाचरण । राज विद्याधर ताल ~ 
नमो नमो हरि ! नमो नमो ।
ताहि गुसाँई नमो नमो, अकल निरंजन नमो नमो ।
सकल वियापी जिहिं जग कीन्हा, नारायण निज नमो नमो ॥ टेक ॥ 
जिन सिरजे जल शीश चरण कर, अविगत जीव दियो ।
श्रवण सँवारि नैन रसना मुख, ऐसो चित्र कियो ॥ १ ॥ 
आप उपाइ किये जगजीवन, सुर नर शंकर साजे ।
पीर पैगम्बर सिद्ध अरु साधक, अपने नाम निवाजे ॥ २ ॥ 
धरती अम्बर चंद सूर जिन, पाणी पवन किये ।
भानण घड़न पलक में केते, सकल सँवार लिये ॥ ३ ॥ 
आप अखंडित खंडित नाहीं, सब सम पूर रहे ।
दादू दीन ताहि नइ वंदित, अगम अगाध कहे ॥ ४ ॥ 
टीका ~ ब्रह्मऋषि सतगुरुदेव इसमें नमस्कार आत्मक मंगल कर रहे हैं कि हे हरि ! पाप और पाप के फल दुःख का नाश करने वाले आप सत्त् चित् आनन्द स्वरूप को हमारा पुनः नमस्कार होवे । हे सकलव्यापी ! आपने इस जगत की रचना की है । हे नारायण ! निज आत्म - स्वरूप आपको हमारी नमो नमो । हे संतों ! जिस प्रभु ने जल की बूँद से उत्पन्न किये और नख से शिखा पर्यन्त सारे शरीर में सब अंग उपांग रचकर फिर इसमें चेतन रूप जीव दिया है । जिससे सारा शरीर चैतन्य हो रहा है । श्रवण नेत्र, मुख में रसना, वक्तृत्व शक्ति, ऐसा शरीर रूप एक अजब चित्राम, गर्भवास में बनाया है । ऐसे प्रभु को हम बारम्बार नमस्कार करते हैं । वे आप स्वयं अपने आप से, सारे जगत् को उत्पन्न करके, सबके जीव जीवनरूप हो रहे हैं । उन्होंने ही ‘सुर’ - देवता, नर - नारद आदि, शंकर शिवजी, इन सबको रचकर सृष्टि के पूज्य बनाये हैं । पीर, पैगम्बर, सिद्ध, साधक, इन सबका आपने नाम - स्मरण द्वारा उद्धार किया है । धरती और अम्बर रचकर इनमें चन्द्रमा, सूर्य प्रकाश करने वाले बनाए हैं । पानी और पवन की रचना की है । एक पलक में प्रलय करके दूसरी पलक में कितने ही ब्रह्माण्डों की रचना रचते हैं । वे अपने भक्तों की इस संसार में रक्षा करके अपनी शरण में लेते हैं और आप स्वयं अखण्ड हैं । कभी नाश को प्राप्त नहीं होते । सबमें समान भाव से व्याप्त हो रहे हैं । हे अगम अगाध ! हम आपके दीन, गरीब, भक्त आपको बारम्बार नमस्कार करते हैं ।

कौन भाँति करतार कियो है शरीर यह, 
पावक के माहिं देखो पानी को जमावनो ।
नासिका श्रवण नैन वदन रसन बैन, 
हाथ पाँव अंग नखशिख को बनावनो ॥ 
अजब अनूप रूप चमक दमक ऊप, 
सुन्दर शोभित अति लागत सुहावनो ।
जाहि छिन चेतना शकति यह लीन भई, 
ताहि छिन लागत सबनि को अभावनो ॥
(सुन्दर विलास)

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